जातियों का लोकतंत्रः जाति और चुनाव
अरविंद मोहन
प्रकाशक | राजकमल पेपरबैक्स
पृष्ठ: 252 पृष्ठ | मूल्य: 350 रुपये
जिस तरह अमीबा के बारे में कहा जाता है कि उसका विखंडन नहीं होता वैसे ही भारतीय समाज की बुनियादी इकाई यानी जाति हर स्थिति में अजर अमर बनी हुई है। वैसे तो इसका कारोबार हर मौसम में चलता है लेकिन चुनाव आते ही उसमें नई कोपलें फूटने लगती हैं। कोई भी चुनाव सिर्फ एक जाति के आधार पर नहीं लड़ा जा सकता, इसलिए तमाम जातियां, जो सामाजिक रूप से एक-दूसरे से अलग खड़ी होती हैं, चुनाव में एकजुट हो जाती हैं।
Denne historien er fra May 27, 2024-utgaven av Outlook Hindi.
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