एक पुरानी कहावत है जो भारत की सियासत के सन्दर्भ में अक्सर कही जाती है, कि राजनीति में न कोई स्थायी मित्र होता है, न शत्रु। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के रिश्तों के संदर्भ में यह बात सटीक बैठती है। पिछले 20 वर्षों में जिस तरह से उनके ताल्लुकात "कभी नीम-नीम, कभी शहद-शहद" जैसे रहे हैं, वैसा देश के राजनैतिक इतिहास में कम ही देखने को मिला है। इसलिए जैसे ही इस बार 4 जून को लोकसभा चुनाव के परिणाम घोषित होने लगे और यह स्पष्ट होने लगा कि भाजपा को अपने बलबूते बहुमत नहीं आ रहा है तो सत्ता के गलियारों में चर्चा का बाजार गर्म होने लगा कि इसके आखिर मायने क्या हैं।
भाजपा को इस चुनाव में बहुमत से 22 कम यानि 240 सीटों पर जीत मिली जबकि नीतीश की पार्टी के 12 सांसद बिहार से चुनकर आए। भाजपा के बाद एनडीए में सबसे अधिक चंद्रबाबू नायडू की तेलुगुदेशम पार्टी को 16 सीटों पर जीत हासिल हुई। एनडीए को कुल 293 सीट मिली, इसलिए मोदी को सरकार चलाने के लिए नीतीश और नायडू के समर्थन पर निर्भर रहना पड़ेगा। वैसे तो नीतीश और नायडू ने भाजपा के संग चुनाव-पूर्व ही गठबंधन किया था और चुनाव परिणाम के अगले ही दिन दोनों नेताओं ने मोदी को अपना-अपना समर्थन पत्र सौंप दिया, लेकिन सियासी अनुमानों का सिलसिला इस बात के इर्द-गिर्द ही घूमता रहा कि क्या दोनों नेता, खासकर नीतीश, मोदी के साथ लंबे समय तक टिके रहेंगें ?
दरअसल नीतीश के ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए कांग्रेस सहित 'इंडिया' गठबंधन के भीतर भी उम्मीद की किरण जगी है कि वे आज नहीं तो कल एनडीए से बाहर आएंगे, हालांकि जदयू ने ऐसी संभावनाओं को खारिज किया है। फिर भी, जिस तरह से नीतीश ने पिछले 11 वर्षों में पाला बदला है उसके कारण ही उन्हें 'पलटू राम' की सार्वजनिक संज्ञा मिली है।
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