बलात्कार और हत्या की नृशंसता जिस किस्म की प्रतिक्रियाओं को जन्म देती है, वे केवल नैतिक और राजनैतिक नहीं होतीं। वीभत्सता की तात्कालिक छवियों से, जो दैहिक और मानसिक एहसास पैदा होते हैं, वह भी प्रतिक्रिया ही है। जैसे, फर्श पर पड़ी देह के आसपास पसरे हिंसा के सुराग, आंखों के इर्द-गिर्द जमे खून के थक्के, या अंग-भंग के दृश्य - जहां सब कुछ अपनी कोरी नग्नता में उपस्थित होता है, जबकि कपड़े एक कोने में कहीं फेंके हुए हों। ऐसे दृश्य हमारी सभ्यता की उस आदिम और स्याह स्मृति को जगा देते हैं, जिसमें मर्द-सत्ता लगातार अपने नाखूनों से औरतों के जिस्म और रूह पर जख्मों की इबारत कुरेदती रही है। स्मृति से लेकर वर्तमान तक पसरे ऐसे दृश्यों में केवल एक चीज ही स्थायी हकीकत के रूप में उपस्थित है - एक औरत की बलत्कृत देह।
यह नग्न हकीकत इतनी तगड़ी होती है कि अपने इर्द-गिर्द के तमाम अफसानों पर भारी पड़ जाती है। इसलिए, एक औरत के साथ की गई हिंसा पर एक राष्ट्र के बतौर यदि हम निस्तब्ध नहीं रह जाते, चौंकते नहीं या रोष में नहीं आते, तो सवाल हमारी समूची मनुष्यता पर ही खड़ा हो जाता है। दूसरी ओर यही रोष कुछ ऐसी सच्चाइयों से ध्यान भी भटकाने का काम कर सकता है जो तात्कालिक घटना से बहुत व्यापक होती हैं। ऐसी सच्चाइयों का एक मौन इतिहास और तय भूगोल होता है, जिनसे बच पाना मुश्किल है। मौजूदा संदर्भ में यह दूसरी सच्चाई पश्चिम बंगाल में मेडिकल शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार की है।
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