कामरेड सीताराम येचुरी की सेहत जब 19 अगस्त को बिगड़ी और उन्हें अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में भर्ती करवाया गया, तब उनके दोस्तों को पूरा भरोसा था कि वे जल्द ही दुरुस्त होकर मुस्कुराते हुए वापस आ जाएंगे। आखिर, वे एक जुझारू योद्धा थे। हम में से जो लोग भी सीता को जेएनयू के दिनों से जानते हैं, लगातार सभी उनके संपर्क में थे। इसलिए हमें चिंता थी उनके स्वास्थ्य की, फिर भी समय बीतने के साथ हमने उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा था। सियासी अंधेरे के इस दौर में हम नहीं चाहते थे कि इंडिया ब्लॉक का एक मजबूत स्तंभ हम गंवा दें।
उनसे मेरी पहली मुलाकात सत्तर के दशक की है। उस समय मैं आइआइटी दिल्ली में पढ़ता था और स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआइ) की पश्चिमी यूपी इकाई का सचिव हुआ करता था। कामरेड सुनीत चोपड़ा के साथ वे एसएफआइ स्टेट कमेटी की बैठक लेने हमारे यहां आए थे और उन्होंने ‘एसएफआइ के क्रांतिकारी उत्तरदायित्व’ के बारे में बोला था। हम सभी उनकी वैचारिक स्पष्टता से प्रभावित हुए थे- मार्क्सवादी समझदारी, दुनिया भर के छात्र आंदोलनों का ज्ञान, उनका आदर्शवाद और इंकलाबी जज्बा। मुझे अच्छे से याद है कि जब वे बोल रहे थे, तो उनके और कमेटी के सदस्यों के बीच की दूरी लगातार कम होती जा रही थी। वक्तव्य के अंत में वे हमारे दोस्त बन गए, जेएनयू के मार्क्सवादी बुद्धिजीवी नहीं रह गए थे, गोया हमसे वे निजी संवाद कर रहे हों।
अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद हम लोग आइआइटी दिल्ली में एसएफआइ की यूनिट नहीं खोल पाए। इस कारण से आइआइटी में पढ़ने वाले वाम रुझान के कुछ छात्र अकसर ही जेएनयू की बैठकों में जाया करते और वहां एसएफआइ के नेताओं से मिला करते थे।
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