आपकी रंगमंचीय यात्रा से बात शुरू करते हैं। रंगमंच पर अभिनय का अपना पहला अनुभव आपको याद है?
मेरे लिए अभिनय बच्चों के खेल जैसा था। जैसे हम सभी तीन, चार या पांच साल की उम्र में कुछ हरकतें करते हैं। जैसे, हम सब नकल मारते हैं, चाहे शिक्षकों की नकल हो, पिता की हो या किसी और की। यह सम्प्रेषण का एक माध्यम होता है। बेशक यह पेशेवर नहीं होता। अभिनय मेरे स्वभाव में है। खुद के और दुनिया के बारे में जानने का यह एक कुदरती तरीका है। जिस स्कूल में मैं पढ़ा वहां कुछ शिक्षक नाटक करने में अच्छे थे। मैं भी खुशकिस्मत रहा क्योंकि उसी दौरान सई परांजपे और अरुण जोगलेकर ने पुणे में बाल रंगमंच की शुरुआत की थी। वे पुणे आकाशवाणी पर हर रविवार प्रसारित होने वाले बालोद्यान नाम के एक कार्यक्रम के लिए बच्चे तलाश रहे थे। यह पचास के दशक के अंत और साठ के दशक के आरंभ की बात है। उससे पहले मैंने रवींद्रनाथ ठाकुर की जन्मशती पर डाकघर नाम के एक नाटक में एक बीमार बच्चे अमल का किरदार निभाया था। दुनिया से उसका संवाद का माध्यम केवल एक खिड़की थी, जहां खड़ा होकर वह दोस्त बनाता था।
डाकघर आकाशवाणी के लिए था?
नहीं, वह तो पुणे में सार्वजनिक मंचन के लिए था। मैं 'महाराष्ट्र कालोपासक' नाम की एक रंगमंडली से जुड़ा हुआ था। यह उसका नाटक था। महाराष्ट्र में छोटे-छोटे रंगमंडलों की मजबूत परंपरा रही है। जैसे, विजय मेहता ने 'रंगायन' नाम की मंडली से शुरुआत की थी। सत्यदेव दुबे का भी एक थिएटर यूनिट था। भालबा केलकर का 'प्रोग्रेसिव ड्रामैटिक एसोसिएशन' था। उस समय मैं अपनी रंगमंडली के अलावा रविवार को बालोद्यान में भी जाता था। उसमें गोपीनाथ तलवार, सई परांजपे और नेमिनाथ नाम के एक और सज्जन थे। मैंने सई के नाटक निरुपमा आणि परिरानी में अभिनय किया था। बाद में उस पर एक फिल्म भी बनी थी। विनय काले ने सई की स्क्रिप्ट पर 1961 में फिल्म बनाई, जिसमें मैंने पिनोकियो का रोल किया। वह मेरी पहली फिल्म थी।
मतलब आप पहले अभिनेता बने, फिर डॉक्टर और फिर एफटीआइआइ निदेशक?
अभिनेता बनने वाला कोई भी व्यक्ति शुरुआत बचपन से ही करता है। हो सकता है कि वह रंगमंच पर न हो और अपने घर में ही अभिनय कर रहा हो।
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