सुप्रीम कोर्ट ने कलीजियम सिस्टम से नियुक्तियां कर के न्यायपालिका को राजनीतिबाजों से बचने के लिए एक सुदृढ़ किला बना लिया था पर अब सरकार मनचाहे जजों की नियुक्ति करने के लिए उस किले को तोड़ने में लगी हुई है. प्रैस, सोशल मीडिया, टीवी न्यूज चैनलों, संसद, चुनाव आयोग, सीबीआई की तरह न्यायपालिका को भी सरकारी बुलडोजरों से भयभीत रखने का यह सरकार का षड्यंत्र है.
अब सोशल मीडिया, कानून मंत्री व उपराष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष के माध्यम से केंद्र की भाजपा सरकार 'कलीजियम सिस्टम' पर सुप्रीम कोर्ट के साथ बहस को ले कर सड़कों तक उतर आई है और उसे उसी तरह ध्वस्त करने की तैयारी कर रही है जिस तरह भीड़ ले जा कर मसजिद तोड़ी गई थी. जनता के सामने कलीजियम सिस्टम को खलनायक के रूप में पेश किया जा रहा है.
1993 के बाद पहली बार पूरे देश में बड़े स्तर पर कलीजियम सिस्टम चर्चा का विषय बन गया है. सरकार समर्थक लोग तर्क देते हैं कि भारत के अलावा कलीजियम सिस्टम किसी और देश में नहीं है, वे अमेरिका की तुलना में भारत की न्याय व्यवस्था को कमतर आंकते हैं. यह सही है पर कलीजियम पद्धति के कारण ही भारत की अदालतें मानवाधिकार को ले कर अमेरिका सहित बहुत देशों की अदालतों से अधिक संवेदनशील हैं.
महिलाओं के गर्भपात कानून के आईने में देखें तो तसवीर साफ नजर आती है. अमेरिका में 1971 में गर्भपात कराने में नाकाम रही एक महिला की तरफ से वहां की सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई. उसे 'रो बनाम वेड' मामला कहा गया. फैसले में कहा गया था कि गर्भधारण और गर्भपात का फैसला महिला का होना चाहिए न कि सरकार का.
उस के 2 साल बाद 1973 में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने गर्भपात को कानूनी अधिकार देते कहा, 'संविधान गर्भवती महिला को फैसला लेने का हक देता है.' अमेरिका के धार्मिक समूहों के लिए यह बड़ा मुद्दा था. 1980 तक यह मुद्दा ध्रुवीकरण का कारण बनने लगा. इस के बाद कई राज्यों में गर्भपात पर पाबंदियां लगाने वाले तरहतरह के नियम लागू किए गए.
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