एक कहावत है 'बाप बड़ा न भैया सब से बड़ा रुपैया' आज की स्थिति में न्यायसंगत है. हजारों के मकान जब करोड़ों के हो जाएं तब सब से बड़ा रुपया हो जाता है. जिस की आंच में सारे रिश्ते धीरेधीरे जल जाते हैं. असल जिंदगी में भी आत्मीयता रिश्तों की नहीं, पैसों की होती है. आज 95 प्रतिशत लोग उन्हीं से आत्मीयता बढ़ाते हैं जिनके पास उन्हें कुरसी, सत्ता व आर्थिक बल होता है. लेकिन क्या यह न्यायसंगत है?
आज इस मायावी संसार में माया का ही बोलबाला है. आदर, सम्मान, रिश्तेनाते सब गौण हो चुके हैं और यह माया का खेल हमें संयुक्त परिवार में भी नजर आता है. संयुक्त परिवार में पार्टिशन का हक हमेशा से रहा है और आज भी यह विवादों की जड़ है.
रेनू शादी के बाद संयुक्त परिवार में बड़ी बहू बन कर आई. ननदों की शादी के बाद उस ने पैसों के लिए झगड़ना शुरू कर दिया. देवर जब कमाने लगा तो उस ने देवर के पैसों का भी खूब उपयोग किया. उस के सासससुर ने भी इस में उस का साथ दिया. देवर की शादी के बाद रेनू के पैतरे बदलने लगे. उस की नजर घर की संपत्ति पर पड़ी, फिर धीरेधीरे सामदामदंडभेद की नीति अपना कर रेनू ने सबकुछ अपने कब्जे में करना शुरू कर दिया और सब को घर से बाहर का रास्ता दिखा दिया. यहां तक कि उस ने देवरदेवरानी को जान से मारने तक की कोशिशें भी कीं जिस से तंग आ कर उन्होंने अपना घर छोड़ दिया.
सास की मृत्यु के बाद जब लड़कियों ने संपत्ति में हिस्सा मांगा तो उन का घर में आना बंद करवा दिया. सपाट कह दिया कि तुम संपन्न परिवार में हो तो अपने मातापिता का कर्ज उतारो. यह सुन कर लालची ननद ने भी अपने पैर पीछे खींच लिए. उस के बाद उस ने अपने कामचोर पति के कान भरे व अपने ससुर का फायदा उठाया. सबकुछ हासिल करने के बाद उसने बुढ़ापे में लाचार ससुर को घर से बाहर कर दिया. देवर, जिस ने पूरे परिवार के लिए सबकुछ किया, संपत्ति व स्नेह दोनों से बेदखल रहा. इसे संस्कार ही कहेंगे कि ऐसे समय में भी वह अपने परिवार व पिता को संभाल रहा है हालांकि उस का मोल उसे व उस की पत्नी को भी नहीं मिला.
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