तीये की रस्म

मैं बाथरूम में अपनी देह को चुल्लूभर पानी से भिगोने के लिए जा रहा था. जी, वैसे भी नलों में आजकल चुल्लूभर पानी ही आ रहा है, वह भी एक दिन छोड़ कर. बिजली, पानी, गैस बचाने का यह ओडईवन फौर्मूला हमारे शहर में भी लागू हो चुका था. रसोई से प्रसारित पत्नी की आवाज ने मेरे तेज कदमों में लड़खड़ाहट ला दी. "अरे, अभी कहां घुस रहे हो बाथरूम में? याद नहीं है, तीये की रस्म में जाना है, वहां से आ कर नहा लेना."
ओह, याद आया, आज हमारे ही एक परिचित और पड़ोसी जिन की देह को उन के घरवाले 2 दिनों पहले पंचतत्त्व में विलीन कर आए थे, हालांकि वे मर तो पहले ही चुके थे. नाम था उन का 'मायाराम'. जीवनभर माया के ही पीछे लगे रहे.
हालांकि, जीतेजी पूरे शहर में मुफ्त की रेवड़ी जैसी सलाह बांटने वाले सलाहचंदों ने उन्हें सलाह देदे कर कान पका दिए थे: 'अरे मायाराम, अब तो उम्र हो गई है, पैर कब्र में लटक रहे हैं, अब तो छोड़ो माया का चक्कर और भक्ति में रम लो, यही सत्य है.' लेकिन एक तो वे हिंदू थे तो उन्हें पता है उन के पैर कब्र में नहीं लटक रहे, दूसरे, एक बार जबरदस्ती उन से चार कुर्सियां मोक्षधाम के लिए डोनेट करवा ली थीं तो उन को यह विश्वास था कि मोक्षधाम में उन की छाती से किसी प्रकार से छूटी यह दान राशि बनाम रिश्वत शायद उन्हें इस धाम में एंट्री से वंचित नहीं रखेगी. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. और एक दिन, सांसें छोड़ दीं.
पता तो हमें भी चल गया था कि उन का अंतिम समय पूरा हो गया, लेकिन थोड़ा लेट पता चला, तब तक उन की एंट्री मोक्षधाम में हो चुकी थी और उन के मायावी शरीर को पंचतत्त्व में विलीन किया जा चुका था. हम ने सोशल मीडिया पर तो उन के बेटे के प्रोफाइल पर एक 'रिप' का संदेश चिपका दिया था.
अत्यंत वेदना का प्रदर्शन करते हुए एक संदेश जोकि कमेंटबॉक्स में ऊपर किसी ने डाल दिया था, शायद कोई नयानया रचनाकार होगा और इस बहाने अपनी लेखनी की प्रतिभा को मांज रहा होगा. हम ने उसी का संदेश कौपी कर के चिपका दिया था. लेकिन आज लोकलिहाज की दुहाईभरे पत्नी के निर्देशों से हमें लगा कि तीये की रस्म में जाना जरूरी है. हम ने अपने कदम वापस किए और उन कदमों में चप्पल डाल कर अपनी स्कूटी से पहुंच लिए मोक्षधाम में.
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