अगर उद्योग, आर्थिक नीति तथा राजनीति मददगार रहीं तो अगली चौथाई सदी भारत की हो सकती है। उद्योग जगत को नवाचार में निवेश करते हुए विनिर्माण पर ध्यान देना चाहिए। हमारी आर्थिक नीति को उत्पादकता में दीर्घकालिक वृद्धि पर तथा इसकी जड़ यानी ढांचागत बदलाव पर ध्यान देना चाहिए। हमारी राजनीतिक बहस भी विचारों के इर्दगिर्द होनी चाहिए।
नेतृत्व की महत्त्वाकांक्षा रखे भारतीय उद्योगः शुरुआत नवाचार में निवेश से होनी चाहिए। भारत के उद्योग जगत को नेतृत्व करना है तो हमें नवाचार पर गंभीर होना पड़ेगा। देश का उद्योग जगत सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का केवल 0.3 फीसदी हिस्सा आंतरिक शोध और विकास पर व्यय करता है, जबकि दुनिया भर में औसतन 1.5 फीसदी खर्च किया जाता है। हम हर वर्ष 7 अरब डॉलर की राशि औद्योगिक शोध एवं विकास पर खर्च करते हैं, जबकि अमेरिका 625 अरब डॉलर, चीन 335 अरब डॉलर, जापान 130 अरब डॉलर और जर्मनी 90 अरब डॉलर व्यय करता है। हम दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और विनिर्माता हैं, लेकिन औद्योगिक शोध एवं विकास में हम 21वें स्थान पर हैं। हमारी 10 सबसे सफल गैर वित्तीय कंपनियों का मुनाफा वैश्विक मानकों पर बहुत अच्छा है लेकिन वे शोध एवं विकास में बहुत कम निवेश करती हैं - मुनाफे का केवल 2 फीसदी। इसके विपरीत अमेरिका, चीन, जापान और जर्मनी की कंपनियां अपने मुनाफे का 29 से 55 फीसदी इसमें लगाती हैं। अगर गिनती की 25 कंपनियां लें तो अल्फाबेट (40 अरब डॉलर) से लेकर बीएमडब्ल्यू (7.6 अरब डॉलर) तक में से हरेक ने समूची भारतीय कंपनियों के कुल निवेश से ज्यादा रकम शोध एवं विकास में लगाई है।
शोध एवं विकास के साथ हमें विश्वस्तरीय विनिर्माण और अंतरराष्ट्रीय बिक्री पर ध्यान देने की जरूरत है। डॉ. मनमोहन सिंह ने अपनी पीएचडी थीसिस पर एक पुस्तक लिखी, जिसने निर्यात के मामले में हमारी कमजोरी की ओर ध्यान आकर्षित किया। उन्होंने कहा कि भारत को अपना ध्यान आयात कम करने के लिए उत्पादन करने के बजाय निर्यात बढ़ाने पर लगाना चाहिए। 1964 में भी वह सही थे और 2025 में भी वह सही हैं। देश के उद्योग जगत की नजर में दुनिया उसका बाजार होनी चाहिए।
Denne historien er fra January 07, 2025-utgaven av Business Standard - Hindi.
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