सुप्रीम कोर्ट के सामने दो ऐसे मामले रखे थे, जिसमें निचली अदालत द्वारा जमानत के आदेश नहीं दिए गए थे। शादी से जुड़े विवाद के मामले में लखनऊ के सेशंस जज ने आरोपी, उसकी मां, पिता और भाई को जमानत देने से इनकार कर दिया था, जबकि उनकी गिरफ्तारी तक नहीं हुई थी। वहीं, दूसरे मामले में एक आरोपी कैंसर पीड़ित था, इसके बाद भी गाजियाबाद की सीबीआई कोर्ट ने उसे जमानत देने से मना कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने निराशा जताते हुए कहा कि ऐसे बहुत से आदेश न्यायालय द्वारा दिए जा रहे हैं, जो हमारे आदेशों से बिल्कुल भी मेल नहीं खाते। कोर्ट में कानून के आधार पर फैसले सुनाए जाते हैं। 10 महीने पहले फैसला देने के बाद भी इसका पालन नहीं किया जा रहा है।
लोकतंत्र में पुलिसिया शासन की जरूरत नहीं
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 21 मार्च को हमारे आदेश के बाद भी लखनऊ के सेशंस जज ने इसका उल्लंघन किया। हमने इस आदेश को इलाहाबाद हाई कोर्ट के संज्ञान में भी डाला। हाई कोर्ट को इस मामले में जरूरी कार्रवाई करनी चाहिए और जजों की न्यायिक कुशलता को सुधारने की कोशिश करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र में पुलिसिया शासन की जरूरत नहीं है। कोर्ट ने कहा कि जहां कस्टडी की जरूरत न हो तो 7 साल से कम की सजा के प्रावधान वाले केसों में गिरफ्तारी की जरूरत नहीं है ।
कोर्ट ने कहा कि अगर कोई आरोपी जांच में सहयोग कर रहा है तो उसे चार्जशीट दाखिल करने के बाद ही हिरासत में लिया जाना चाहिए। जुलाई में कोर्ट अपने एक फैसले में कह चुका है, ट्रायल कोर्ट की जिम्मेदारी है कि संविधान की गरिमा को बनाए रखें। जजों की न्याय कुशलता को सुधारने की आवश्यकता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि देश में जजों की न्याय कुशलता को सुधारने की आवश्यकता है। वर्तमान में यह देखा जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट के कई आदेशों का पालन अधीनस्थ न्यायालय द्वारा नहीं किया जा रहा है, उन्हें अनदेखा किया जा रहा है। ऐसी स्थिति में जजों को ट्रेनिंग की
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