इस मामले में प्रतिवादी ने बकाया राशि के लिए चिट फंड कंपनी के पक्ष में 19 लाख रुपए की राशि का चेक निष्पादित किया था। जब चेक प्रस्तुत किया गया तो यह अकाउंट बंद की टिप के साथ वापस आ गया। प्रतिवादी को धारा 138 NI Act के तहत अपराध के लिए ट्रायल कोर्ट द्वारा दोषी ठहराया गया। हालांकि, अपीलीय अदालत ने उसे बरी कर दिया, जिसे हाईकोर्ट ने भी पुष्टि की। इसलिए चिट कंपनी ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की।
अपीलीय न्यायालय ने अभियुक्त बरी करते हुए माना कि 1.8 प्रतिशत प्रति माह की दर से ब्याज की बजाय 3 प्रतिशत प्रति माह की दर से ब्याज की गणना करके राशि की गलत गणना की गई। कंपनी ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष तर्क दिया कि खातों के विवरण के अनुसार, ब्याज 3 प्रतिशत प्रति वर्ष होना चाहिए था।
सुप्रीम कोर्ट ने माना कि ब्याज दर के बारे में विवाद उतना प्रासंगिक नहीं था, क्योंकि अभियुक्त ने चेक के निष्पादन को स्वीकार किया था। साथ ही जारी होते ही अकाउंट बंद करने का उसका आचरण संदिग्ध परिस्थिति थी।
न्यायालय ने कहा यह तथ्य कि प्रतिवादी द्वारा अपीलकर्ता से लिए गए लोन को चुकाने में विफलता के परिणामस्वरूप चेक जारी किया गया था, जिस पर ब्याज जोड़ा गया था, कमोबेश इस मुद्दे को सुलझा देगा।
दशरथ रूपसिंह राठौड़ बनाम महाराष्ट्र राज्य, (2014) के निर्णय का संदर्भ दिया गया, जिसमें कहा गया कि चेक के अनादर होते ही धारा 138 एनआई अधिनियम के तहत अपराध किया जाता है।
प्रतिवादी का तर्क खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि चूंकि मल राशि में 1.8 प्रतिशत प्रति माह के बजाय 3 प्रतिशत ब्याज दर जोड़ दी गई है और चेक में दी गई राशि भी उसी दर को दर्शाती है, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि चेक मूल राशि के पुनर्भुगतान के लिए नहीं थे।
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