भारतीय सिनेमा के जनक ढूंढीराज गोविंद फाल्के ने 1913 में जब देश की पहली फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' बनाई तो यह प्रश्न उठा कि आखिर उन्होंने अपनी प्रथम फिल्म के लिए यही कथानक क्यों चुना? दर्शकों को सिनेमा के नए माध्यम की ओर आकर्षित करने के लिए वे 'अरेबियन नाइट्स' 'अलीबाबा चालीस चोर' जैसे कथानकों पर भी फिल्म बना सकते थे, जिनकी कहानियां उन दिनों काफी प्रचलित थीं । लेकिन फाल्के ने अपनी मूक फिल्म के कथानक के लिए पौराणिक-ऐतिहासिक विषय को चुनकर अपना दृष्टिकोण ही नहीं, दूरदर्शिता भी स्पष्ट कर दी।
फाल्के जानते थे कि भारतीय सिनेमा को अगर जनमानस तक पहुंचाना है तो दर्शकों को वही भारतीय संस्कृति दिखानी होगी, जिसका पाठ हर भारतीय को एक घुट्टी के रूप में बचपन से पिलाया जाता रहा है। हम सभी बचपन से अपनी धार्मिक- पौराणिक कथाएं या देश के वीरों की गाथाएं सुनकरपढ़कर बड़े हुए हैं। यही कारण था कि देश की पहली मूक फिल्म तो 'राजा हरिश्चंद्र' थी ही। उसके बाद भी बरसों तक धार्मिक- पौराणिक और साहसिक ऐतिहासिक कथानक ही फिल्मकारों के प्रिय विषय बने रहे। बाद में धीरे-धीरे सामाजिक विषयों और देशभक्ति के कथानक पर भी खूब फिल्में बनीं और साहित्यिक कृतियों पर भी। लेकिन ऐसी अधिकांश फिल्मों की विशेषता यह थी कि ये भारतीयता के रंग में रंगी होती थीं।
1930-40 के दौरान ऐतिहासिक पात्रों, साहित्य पर आधारित फिल्में बनीं । अंग्रेजी हुकूमत फिल्मों पर कड़ी निगाह रखती थी, इसलिए देशभक्ति फिल्में बनाना संभव नहीं था। द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हुआ, तब अंग्रेज उसमें उलझ गए और फिल्मों पर निगरानी नहीं रख सके। तभी देशभक्ति फिल्मों का निर्माण शुरू हुआ।
मूक दौर
मूक दौर के आरंभ की बात करें तो 1917 तक फाल्के ही मुख्यतः एकमात्र फिल्म निर्माता थे। इस दौरान उन्होंने 'सत्यवान सावित्री' और 'लंका दहन' जैसी फिल्में बनाईं । जब फाल्के ने 1918 में नासिक जाकर 'हिंदुस्तान फिल्म कंपनी' बनाई तो इस बैनर से उन्होंने 'कृष्ण जन्म' बनाकर देश में विशुद्ध धार्मिक फिल्मों की मजबूत नींव रखी। इसके बाद फाल्के ने जहां 'कालिया मर्दन' बनाई तो अन्य फिल्मकार भी राम जन्म, कंस वध, सती पार्वती, भक्त विदुर और कृष्ण-सुदामा जैसी फिल्में बनाने लगे।
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