चुनाव आयोग ने शिवसेना के मूल चुनाव चिह्न और पार्टी पर नियंत्रण को एकनाथ शिंदे गुट को सौंप दिया है। महाराष्ट्र की राजनीति में आया यह सबसे बड़ा भूचाल है । न केवल उद्धव ठाकरे यह लड़ाई हार गए हैं और शिंदे ने पार्टी और उसके चुनाव चिह्न पर नियंत्रण हासिल कर लिया है, बल्कि चुनाव आयोग के इस फैसले ने प्रकारांतर से शिंदे को बाल ठाकरे का वारिस मान लिया है। यह बहुत बड़ा घटनाक्रम है, जो भारतीय राजनीति के इतिहास में इसके पहले सिर्फ एक बार हुआ है। कई लोगों को यह सातवें दशक की उस घटना की पुनरावृत्ति लगता है, जब इंदिरा गांधी न केवल उस पार्टी का नियंत्रण हासिल करने के लिए लड़ाई लड़ी, जिसने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में भूमिका निभाई थी, बल्कि गांधी और नेहरू की विरासत पर भी दावा ठोका था।
वर्तमान राजनीतिक संदर्भ में इस फैसले का महाराष्ट्र में ही नहीं, बल्कि कई राज्यों में बड़ा प्रभाव पड़ने जा रहा है। यह घटनाक्रम सबसे पहले महाराष्ट्र की राजनीति पर गहरा प्रभाव डालेगा। शिवसेना पर पड़े प्रभाव को उद्धव ठाकरे गुट के दृष्टिकोण से देखें, तो वे जो कुछ भी शिंदे के हाथों छिनने से बचाने में अब तक सफल रहे थे, अब चुनाव चिह्न छिनने से उन्हें वहां भी नुकसान उठाना पड़ सकता है। वास्तव में शिंदे के तख्तापलट किए जाने के बावजूद उद्धव ठाकरे शिवसैनिकों और समर्थकों का एक अच्छाखासा भाग अपने साथ बनाए रखने में सफल रहे थे। उन्होंने इस वर्ग को अपने साथ बनाए रखने के लिए बाल ठाकरे के प्रति वफादारी और उनकी विरासत का दावा करने की रणनीति का इस्तेमाल किया था। शिंदे के पक्ष में चुनाव आयोग का फैसला आने के बाद, उद्धव ठाकरे की विरासत का दावा करने का नैतिक बल और अधिकार खो बैठे हैं। इसका सीधा प्रभाव आगामी नगरपालिका चुनाव और 2024 के विधानसभा और आम चुनाव में उद्धव की चुनावी संभावनाओं पर पड़ेगा।
सेकुलर चेहरा बनाए रखना मजबूरी
Denne historien er fra PANCHJANYA 05 March 2023-utgaven av Panchjanya.
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