आद्यगुरु ने भारत की चारों दिशाओं में सनातन धर्म के कल्याण के लिए चार मठों की स्थापना की थी। यह मठ पश्चिम में द्वारकाधाम, पूर्व में पुरीधाम, उत्तर में ज्योर्तिधाम तथा दक्षिण दिशा में रामेश्वर धाम में स्थित हैं, जिनके नाम क्रमश: शारदा मठ, गोवर्धन मठ, ज्योतिर्मठ और शृंगेरी मठ हैं।
आठवीं सदी के उत्तरार्द्ध में जब भारतवर्ष में सनातन धर्म अपने मूल अस्तित्व को खोने लगा था, बौद्ध, जैन आदि धर्मों ने सनातन धर्म की सत्ता को लगभग समाप्त ही कर दिया था, सनातन मतावलम्बी भी वैदिक शास्त्रों को भुलाकर अपने-अपने मत मानने लगे थे, ऐसे समय में एक ऐसे सन्त की आवश्यकता थी, जो वैदिक धर्म को पुनस्स्थापित कर सनातन धर्म का उद्धार कर सके।
वैदिक धर्म की ऐसी दुर्दशा देख स्वयं भगवान् शिव अपने अंशावतार से भारतवर्ष के दक्षिण प्रान्त में केरल राज्य के पूर्णा नदी के तटवर्ती कलादि नामक गाँव में विद्वान और धर्मनिष्ठ ब्राह्मण श्री शिवगुरु की धर्मपत्नी श्री विशिष्टा देवी के गर्भ से वैशाख शुक्ल पंचमी के दिन जन्मे। यही बालक आगे चलकर श्रीमद् आद्यगुरु शंकराचार्य जी के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
उस समय में भारत के दक्षिण राज्यों में वैदिक एवं सनातन धर्म के विद्वानों का अभाव समझा जाता था। इस बात का साक्ष्य यह था कि बड़ेबड़े शास्त्रार्थों में दक्षिण का द्वार हमेशा बन्द ही रहा करता था। उस समय तक दक्षिण भारत में ऐसा कोई विद्वान् नहीं हुआ था, जो सभी वेद-वेदांग तथा उपनिषदों का ज्ञाता हो। इस कमी को सर्वप्रथम आद्यगुरु शंकराचार्य ने ही दूर किया था।
महज 8 वर्ष की आयु में ही सभी वेद-वेदांगों तथा पुराणों का अध्ययन कर लेने के पश्चात् बालक शंकर ने संन्यास ग्रहण कर लिया। बाल्यावस्था में अपने पिता को खोने का दु:ख तथा इकलौती सन्तान होने के पश्चात् भी संन्यास धर्म धारण करना, ऐसा महान् कार्य कोई विभूति ही कर सकती थी।
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बारहवाँ भाव : मोक्ष अथवा भोग
किसी भी जन्मपत्रिका के चतुर्थ, अष्टम और द्वादश भाव को 'मोक्ष त्रिकोण भाव' कहा जाता है, जिसमें से बारहवाँ भाव 'सर्वोच्च मोक्ष भाव' कहलाता है। लग्न से कोई आत्मा शरीर धारण करके पृथ्वी पर अपना नया जीवन प्रारम्भ करती है तथा बारहवें भाव से वही आत्मा शरीर का त्याग करके इस जीवन के समाप्ति की सूचना देती है अर्थात् इस भाव से ही आत्मा शरीर के बन्धन से मुक्त हो जाती है और अनन्त की ओर अग्रसर हो जाती है।
रामजन्मभूमि अयोध्या
रात के सप्तमोक्षदायी पुरियों में से एक अयोध्या को ब्रह्मा के पुत्र मनु ने बसाया था। वसिष्ठ ऋषि अयोध्या में सरयू नदी को लेकर आए थे। अयोध्या में काफी संख्या में घाट और मन्दिर बने हुए हैं। कार्तिक मास में अयोध्या में स्नान करना मोक्षदायी माना जाता है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन यहाँ भक्त आकर सरयू नदी में डुबकी लगाते हैं।
जीवन प्रबन्धन का अनुपम ग्रन्थ श्रीमद्भगवद्गीता
यह सर्वविदित है कि महाभारत के युद्ध में ही श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिया था। यह उपदेश मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी (11 दिसम्बर) को प्रदत्त किया गया था। महाभारत के युद्ध से पूर्व पाण्डव और कौरवों की ओर से भगवान् श्रीकृष्ण से सहायतार्थ अर्जुन और दुर्योधन दोनों ही गए थे, क्योंकि श्रीकृष्ण शक्तिशाली राज्य के स्वामी भी थे और स्वयं भी सामर्थ्यशाली थे।
तरक्की के द्वार खोलता है पुष्कर नवांशस्थ ग्रह
नवांश से सम्बन्धित 'वर्गोत्तम' अवधारणा से तो आप भली भाँति परिचित ही हैं। इसी प्रकार की एक अवधारणा 'पुष्कर नवांश' है।
सात धामों में श्रेष्ठ है तीर्थराज गयाजी
गया हिन्दुओं का पवित्र और प्रधान तीर्थ है। मान्यता है कि यहाँ श्रद्धा और पिण्डदान करने से पूर्वजों को मोक्ष प्राप्त होता है, क्योंकि यह सात धामों में से एक धाम है। गया में सभी जगह तीर्थ विराजमान हैं।
सत्साहित्य के पुरोधा हनुमान प्रसाद पोद्दार
प्रसिद्ध धार्मिक सचित्र पत्रिका ‘कल्याण’ एवं ‘गीताप्रेस, गोरखपुर के सत्साहित्य से शायद ही कोई हिन्दू अपरिचित होगा। इस सत्साहित्य के प्रचारप्रसार के मुख्य कर्ता-धर्ता थे श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार, जिन्हें 'भाई जी' के नाम से भी सम्बोधित किया जाता रहा है।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर अमृत गीत तुम रचो कलानिधि
राष्ट्रकवि स्व. रामधारी सिंह दिनकर को आमतौर पर एक प्रखर राष्ट्रवादी और ओजस्वी कवि के रूप में माना जाता है, लेकिन वस्तुतः दिनकर का व्यक्तित्व बहुआयामी था। कवि के अतिरिक्त वह एक यशस्वी गद्यकार, निर्लिप्त समीक्षक, मौलिक चिन्तक, श्रेष्ठ दार्शनिक, सौम्य विचारक और सबसे बढ़कर बहुत ही संवेदनशील इन्सान भी थे।
सेतुबन्ध और श्रीरामेश्वर धाम की स्थापना
जो मनुष्य मेरे द्वारा स्थापित किए हुए इन रामेश्वर जी के दर्शन करेंगे, वे शरीर छोड़कर मेरे लोक को जाएँगे और जो गंगाजल लाकर इन पर चढ़ाएगा, वह मनुष्य तायुज्य मुक्ति पाएगा अर्थात् मेरे साथ एक हो जाएगा।
वागड़ की स्थापत्य कला में नृत्य-गणपति
प्राचीन काल से ही भारतीय शिक्षा कर्म का क्षेत्र बहुत विस्तृत रहा है। भारतीय शिक्षा में कला की शिक्षा का अपना ही महत्त्व शुक्राचार्य के अनुसार ही कलाओं के भिन्न-भिन्न नाम ही नहीं, अपितु केवल लक्षण ही कहे जा सकते हैं, क्योंकि क्रिया के पार्थक्य से ही कलाओं में भेद होता है। जैसे नृत्य कला को हाव-भाव आदि के साथ ‘गति नृत्य' भी कहा जाता है। नृत्य कला में करण, अंगहार, विभाव, भाव एवं रसों की अभिव्यक्ति की जाती है।
व्यावसायिक वास्तु के अनुसार शोरूम और दूकानें कैसी होनी चाहिए?
ऑफिस के एकदम कॉर्नर का दरवाजा हमेशा बिजनेस में नुकसान देता है। ऐसे ऑफिस में जो वर्कर काम करते हैं, तो उनको स्वास्थ्य से जुड़ी कई परेशानियाँ आती हैं।