श्री मद्भागवत गीता का एक श्लोक है :
कार्यकरणकर्तृव्ये हेतुः प्रकृतिरुच्यते।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ॥
अर्थात् प्रकृति सम्पूर्ण प्राकृत कार्य एवं कारणों की हेतु कही गई है और पुरुष (जीवात्मा) इस संसार में विविध सुख एवं दुःख को भोगने के लिए है, अतः स्पष्ट है कि जीव स्वयं ही जन्म-जन्मान्तरों में अर्जित पाप एवं पुण्य की बदौलत अच्छी और बुरी योनियों में भटकता रहता है और जीव को जो भी योनि प्राप्त होती है, उस योनि में वह अपना प्रारब्ध कष्ट काटता है। उस कष्ट का कारण सिर्फ वह जीव है, न कि शरीर। एक बार जिस देह में जीव को डाल दिया, तो वह जीव प्रकृति के वश में हो जाता है और वहाँ स्वयं जीव का कुछ भी उपाय अथवा जोर नहीं चलता है और वह उसी प्राप्त देह के अनुसार शारीरिक भोग को भोगता रहेगा। उदाहरण के तौर पर मान लो किसी जीव को कुत्ते की योनि मिली, तो वह कुत्ते के शरीर का भोग करेगा। कारण कि प्रकृति द्वारा निर्मित देह प्राकृतिक नियम के अनुसार ही चलेगी। आगे कर्मयोग के बारे में श्रीमद्भगवद्गीता में जो कहा है, उसे निम्नलिखित कहानी के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं।
जब राजा अकबर तानसेन से पूछते हैं कि तानसेन बताओ, तुम श्रेष्ठ हो कि तुम्हारा गुरु हरिदास श्रेष्ठ है। तब तानसेन ने कहा कि मुझे अपना पद एवं प्रतिष्ठा खोने का डर सदैव लगा रहता है, लेकिन मेरे गुरु हरिदास ईश्वर अर्पण बुद्धि को रखते हुए कर्म करते हैं अर्थात् वह अपने प्रत्येक कर्म को ईश्वर को अर्पण करते हुए करते हैं और जो कर्मफल उन्हें प्राप्त हो रहे हैं, जो भी उन्हें मिल रहा है, उसे वे 'ईश्वर-प्रसादम्” मानकर ग्रहण करते हैं। इसलिए हे राजन! मेरे गुरु मुझसे बहुत श्रेष्ठ हैं। वे कर्म कुशल योगी हैं अर्थात् ‘योग: कर्मसु कौशलम्’ से युक्त हैं।
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बारहवाँ भाव : मोक्ष अथवा भोग
किसी भी जन्मपत्रिका के चतुर्थ, अष्टम और द्वादश भाव को 'मोक्ष त्रिकोण भाव' कहा जाता है, जिसमें से बारहवाँ भाव 'सर्वोच्च मोक्ष भाव' कहलाता है। लग्न से कोई आत्मा शरीर धारण करके पृथ्वी पर अपना नया जीवन प्रारम्भ करती है तथा बारहवें भाव से वही आत्मा शरीर का त्याग करके इस जीवन के समाप्ति की सूचना देती है अर्थात् इस भाव से ही आत्मा शरीर के बन्धन से मुक्त हो जाती है और अनन्त की ओर अग्रसर हो जाती है।
रामजन्मभूमि अयोध्या
रात के सप्तमोक्षदायी पुरियों में से एक अयोध्या को ब्रह्मा के पुत्र मनु ने बसाया था। वसिष्ठ ऋषि अयोध्या में सरयू नदी को लेकर आए थे। अयोध्या में काफी संख्या में घाट और मन्दिर बने हुए हैं। कार्तिक मास में अयोध्या में स्नान करना मोक्षदायी माना जाता है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन यहाँ भक्त आकर सरयू नदी में डुबकी लगाते हैं।
जीवन प्रबन्धन का अनुपम ग्रन्थ श्रीमद्भगवद्गीता
यह सर्वविदित है कि महाभारत के युद्ध में ही श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिया था। यह उपदेश मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी (11 दिसम्बर) को प्रदत्त किया गया था। महाभारत के युद्ध से पूर्व पाण्डव और कौरवों की ओर से भगवान् श्रीकृष्ण से सहायतार्थ अर्जुन और दुर्योधन दोनों ही गए थे, क्योंकि श्रीकृष्ण शक्तिशाली राज्य के स्वामी भी थे और स्वयं भी सामर्थ्यशाली थे।
तरक्की के द्वार खोलता है पुष्कर नवांशस्थ ग्रह
नवांश से सम्बन्धित 'वर्गोत्तम' अवधारणा से तो आप भली भाँति परिचित ही हैं। इसी प्रकार की एक अवधारणा 'पुष्कर नवांश' है।
सात धामों में श्रेष्ठ है तीर्थराज गयाजी
गया हिन्दुओं का पवित्र और प्रधान तीर्थ है। मान्यता है कि यहाँ श्रद्धा और पिण्डदान करने से पूर्वजों को मोक्ष प्राप्त होता है, क्योंकि यह सात धामों में से एक धाम है। गया में सभी जगह तीर्थ विराजमान हैं।
सत्साहित्य के पुरोधा हनुमान प्रसाद पोद्दार
प्रसिद्ध धार्मिक सचित्र पत्रिका ‘कल्याण’ एवं ‘गीताप्रेस, गोरखपुर के सत्साहित्य से शायद ही कोई हिन्दू अपरिचित होगा। इस सत्साहित्य के प्रचारप्रसार के मुख्य कर्ता-धर्ता थे श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार, जिन्हें 'भाई जी' के नाम से भी सम्बोधित किया जाता रहा है।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर अमृत गीत तुम रचो कलानिधि
राष्ट्रकवि स्व. रामधारी सिंह दिनकर को आमतौर पर एक प्रखर राष्ट्रवादी और ओजस्वी कवि के रूप में माना जाता है, लेकिन वस्तुतः दिनकर का व्यक्तित्व बहुआयामी था। कवि के अतिरिक्त वह एक यशस्वी गद्यकार, निर्लिप्त समीक्षक, मौलिक चिन्तक, श्रेष्ठ दार्शनिक, सौम्य विचारक और सबसे बढ़कर बहुत ही संवेदनशील इन्सान भी थे।
सेतुबन्ध और श्रीरामेश्वर धाम की स्थापना
जो मनुष्य मेरे द्वारा स्थापित किए हुए इन रामेश्वर जी के दर्शन करेंगे, वे शरीर छोड़कर मेरे लोक को जाएँगे और जो गंगाजल लाकर इन पर चढ़ाएगा, वह मनुष्य तायुज्य मुक्ति पाएगा अर्थात् मेरे साथ एक हो जाएगा।
वागड़ की स्थापत्य कला में नृत्य-गणपति
प्राचीन काल से ही भारतीय शिक्षा कर्म का क्षेत्र बहुत विस्तृत रहा है। भारतीय शिक्षा में कला की शिक्षा का अपना ही महत्त्व शुक्राचार्य के अनुसार ही कलाओं के भिन्न-भिन्न नाम ही नहीं, अपितु केवल लक्षण ही कहे जा सकते हैं, क्योंकि क्रिया के पार्थक्य से ही कलाओं में भेद होता है। जैसे नृत्य कला को हाव-भाव आदि के साथ ‘गति नृत्य' भी कहा जाता है। नृत्य कला में करण, अंगहार, विभाव, भाव एवं रसों की अभिव्यक्ति की जाती है।
व्यावसायिक वास्तु के अनुसार शोरूम और दूकानें कैसी होनी चाहिए?
ऑफिस के एकदम कॉर्नर का दरवाजा हमेशा बिजनेस में नुकसान देता है। ऐसे ऑफिस में जो वर्कर काम करते हैं, तो उनको स्वास्थ्य से जुड़ी कई परेशानियाँ आती हैं।