भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में स्वामी विवेकानन्द का प्रभाव
Kendra Bharati - केन्द्र भारती|Kendra Bharati - August 2022 Issue
“आगामी पचास वर्ष के लिए यह जननी जन्मभूमि भारतमाता ही मनो आराध्य देवी बन जाए।... अपना सारा ध्यान इसी एक ईश्वर पर लगाओ, हमारा देश ही हमारा जाग्रत देवता है। सर्वत्र उसके हाथ हैं. सर्वत्र उसके पैर हैं और सर्वत्र उसके कान हैं।
डॉ. लखेश्वर चन्द्रवंशी 'लखेश'
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में स्वामी विवेकानन्द का प्रभाव

समझ लो कि दूसरे देवी-देवता सो रहे हैं।... जब हम इस प्रत्यक्ष देवता की पूजा कर लेंगे, तभी हम दूसरे देव - देवियों की पूजा करने योग्य होंगे, अन्यथा नहीं।" स्वामी विवेकानन्द के इस आह्वान ने भारतवासियों को देश के लिए अपना सर्वस्व समर्पित करने के लिए प्रेरित किया। एक राष्ट्रभक्त संन्यासी के रूप में स्वामीजी का सम्पूर्ण जीवन पराधीन भारत के युवाओं के लिए आदर्श बन गया था। स्वामीजी के क्रान्तिकारी विचारों ने समूचे भारत चेतना का अलख जगाया था। राष्ट्रीय प्रश्न यह उठता है कि स्वामीजी के कालखंड में भारत की स्थित कैसी थी? तत्कालीन भारतीय समाज की अवस्था कैसी थी? भारतीय समाज के मन मस्तिष्क में किस तरह के विचार थे? इन प्रश्नों की गहराई में जाने पर ही हमें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में स्वामीजी के प्रभाव का पता चल सकता है।

उल्लेखनीय है कि स्वामी विवेकानन्द के समय प्रायः समग्र भारत ब्रिटिश साम्राज्य का अंग बन चुका था या देशी रियासतें उसके नियंत्रण में थीं। उस समय कलकत्ता (अब कोलकाता), ब्रिटिश भारत की राजधानी थीं। वहाँ पर सम्पूर्ण भारत की झलक मिलती थी। विदेशी विचारों और भावों के द्वारा भारत राष्ट्र के जीवन-रस को चूसा जा था। हिन्दुओं का धर्मान्तरण कर उन्हें ईसाई या मुसलमान बनाने में विधर्मी समान रूप से प्रयत्नशील थे। ब्रिटिश शासन का लाभ उठाकर विदेशी ईसाई मिशनरी जोर शोर से हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति, हिन्दू तत्वज्ञान पर भीषण प्रहार तथा हिन्दू समाज का अपमान कर रहे थे। भारत का अधिकांश अंग्रेजी में शिक्षित वर्ग अंग्रेज-भक्त होकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने की दिशा में आगे बढ़ रहा था। इस सम्बन्ध में स्वामी गम्भीरानन्द “युगनायक विवेकानन्द" पुस्तक में लिखा है, "मुसलमानों की भांति केवल अस्त्र-शस्त्र की सहायता से राज्य का विस्तार करना, धन-वैभव लूटना या धर्म परिवर्तन करना उनका (अंग्रेजों) उद्देश्य नहीं था। व्यापार के बहाने से यन लूटना ही उन लोगों का मुख्य प्रयोजन था। इस कार्य में सहायता पाने के लिए परदेशियों में अपनी संस्कृति का प्रचार

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