हालांकि कतिपय विद्वानों ने यह भी भ्रम फैलाने की कोशिश की है कि जिस व्यक्ति को शिवपुरी में फांसी दी गई, वह तात्या नहीं था। अपने कथन को सत्यापित करने के लिए उन्होंने जनश्रुतियों का सहारा लिया। किन्तु सच है कि अलिखित आधार पर किसी हुतात्मा के बलिदान को झुठलाया नहीं जा सकता। कारण कि वे स्थान, जिनसे તાત્યા ના વિધી ન किसी रूप में नाता थाः आज भी शिवपुरी की धरती पर विद्यमान है। तात्या द्वारा अदालत में दिया बयान और फिरंगी हुक्मरानों के वे कागजात जो तात्या की फांसी पर प्रमाण की मोहर लगाते हैं, इतिहास के सत्यापित अभिलेख के रूप में संग्रहीत हैं।
तात्या टोपे का जन्म महाराष्ट्र के नासिक जिले के यवला ग्राम में वर्ष १८५४ में हुआ था। उनके पिता का नाम पांडुरंग भट्ट और माता का नाम रुक्मणी था। तात्या ने नाना साहब पेशवा के साथ रहकर राष्ट्रभक्ति का पाठ पढ़ा। २० जून, १८५८ को ग्वालियर में महारानी लक्ष्मीबाई के शहीद होने के उपरान्त तात्या 'गुरिल्ला युद्धों की शुरूआत करके स्वाधीनता यज्ञ में क्रान्ति की समिधाएं डालते रहे। इस दौरान तात्या की आयु कागभग ४५ वर्ष थी।
तात्या के अभिन्न साथी झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, कुंवर सिंह, माधोसिंह, नवाब खान, बहादुर खान के प्राणोत्सर्ग के पश्चात नाना साहब भूमिगत हो गए। तात्या ही क्रान्ति के अकेले प्रणेता रह गए। अकेले तात्या सैन्य और शस्त्रों सें सम्पन्न फिरंगियों से सामना नहीं कर सकते थे, इसलिए वे दक्षिण भारत के राजाओं से सहायता की आशा से नर्मदा नदी पार कर दक्षिण पहुँच गए। किन्तु यहां से बिना किसी सहायता के निराश होकर तात्या को उल्टे पैर लौटना पड़ा। तात्या राजस्थान पहुँचे। किन्तु वहाँ भी तात्या निराशा और अनिश्चय के घोर अंधेरे में भटक कर रह गए। तात्या पर टिप्पणी करते हुए ‘राजस्थान रोल इन द स्ट्रगल ऑफ १८५७' नामक पुस्तक में लिखा है, 'राजस्थान में तात्या टोपे को किसी प्रकार की सहायता न मिलने से वह हताश हो गया और उसने किसी मराठा राज्य में जाने का विचार बनाया'।
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प्रेमकृष्ण खन्ना
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