प्रश्न : गुरुदेव ! मैं नियमितरूप से संध्या करता हूँ परंतु इधर-उधर के विचार आते हैं, क्या करूँ ?
पूज्य बापूजी : विचार अच्छे आयें चाहे बुरे आयें लेकिन विचार करो कि 'विचार आते हैं किसकी सत्ता से? विचार क्यों आते हैं?'
अरे, तरंग स्वाभाविक आती है। जैसे मीठे की मिठास और नमकीन का खारा स्वाद - दोनों स्वभाव से ही होता रहता है, ऐसे ही विचार भले अच्छे-बुरे हों किंतु अच्छे विचार की अच्छाई और बुरे विचार की अठखेलियाँ इन दोनों की आधारभूत सत्ता अपना चैतन्य आत्मस्वभाव ही है। उसी सत्ता से ये होते रहते हैं। तो अपनी दृष्टि को मूल सत्ता पर ले आओ।
दूसरा, अच्छे-बुरे विचार आते क्यों हैं?
इस सृष्टि में सब अठखेलियाँ आत्मानंद-ब्रह्मानंद को छलकाने के लिए हो रही हैं।
मधु क्षरन्ति सिन्धवः।
(ऋग्वेद : मंडल १, सूक्त ९०, मंत्र ६)
विचारपूर्वक देखो तो समग्र हवाएँ और नदियाँ - समुद्र मधु-वर्षण कर रहे हैं । औषधियाँ भी चन्द्रमा की किरणें लेकर मधुमय हो रही हैं। सोचो कि 'नमकीन और मिठाई साथ में क्यों चलते हैं? ताना और बाना साथ में क्यों चलते हैं?'
आत्मा के पर्दे पर मन से रँगी हुई आत्मा की ही रोशनी अनेक नाम-रूपों में दिखाई पड़ती रहती है। यह बाहरपना, यह भीतरपना, यह ठोसपना, अब, तब, यहाँ, वहाँ, मैं, तू-सब आत्मप्रकाश ही है।
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