सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्त्यादिहेतवे ।
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुमः ॥
(श्रीमद्भागवत माहात्म्य : १.१ )
जो सत् हैं, चैतन्य हैं, आनंदस्वरूप हैं, जिनके अस्तित्व से खुशियाँ दिखती हैं, जड़ शरीरों में चेतना दिख रही है और जो जगत की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के हेतु हैं तथा आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक - तीनों तापों का नाश करनेवाले हैं, उन सच्चिदानंद प्रभु को हम प्रणाम करते हैं।
तुम्हारा सच्चिदानंद स्वभाव ऐसा है कि कितना भी न्याय-अन्याय हो, कितनी भी मुसीबतें आयें...
ब्रह्म गिआनी सदा निरलेप |
जैसे जल महि कमल अलेप || (गुरुवाणी )
तो उदासी किस बात की ? दुःख किस बात का? फरियाद किस बात की ? तुम शाश्वत हो, तुम्हारा कभी कोई कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता, तुम वह हो ! तो हमारा कौन क्या बिगाड़ेगा!
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥
'इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, आग जला नहीं सकती, जल गला नहीं सकता और वायु सुखा नहीं सकती।' (गीता: २.२३)
ऐसा अपना आपा है ! अपने मुक्त स्वभाव की मस्ती ऐसे प्रसंगों में ही तो जगमगाती है, काहे फिक्र करो? अपने मुक्त स्वभाव के आगे फिक्र की दाल नहीं गलती इसलिए तुम फिक्र मत करना हं !
आठवें अर्श' तेरा नूर चमकदा, होर भी उच्च हो ।
फकीरा ! आपे अल्लाह हो ।
खुल्लियाँ तैनूँ भऊ न खांदे, लुक लुक कैद न हो ।
छड मौहरा सुन राम दुहाई, अपना आप न को फकीरा !
आपे अल्लाह हो ।
अपने आत्मस्वभाव में खुलो ।
पूरे हैं वे मर्द जो हर हाल में खुश हैं। गर माल दिया यार ने,
तो माल में बेजर' जो किया तो, खुश हैं। में उसी अहवाल में खुश खुश हैं ||
Denne historien er fra March 2023-utgaven av Rishi Prasad Hindi.
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