कलियुग में सहज, सुरक्षित साधन : गुरुआज्ञा-पालन
Rishi Prasad Hindi|June 2023
पहले के जमाने में शिष्य इतना पढ़ते नहीं थे जितनी गुरुसेवा (गुरुआज्ञा पालन ) करते थे। वे सेवा का महत्त्व जानते थे। गुरु की सेवा और अनुकम्पा से ही सशिष्यों को सभी प्रकार के ज्ञानों की उपलब्धि हो जाती थी। गुरुआज्ञा का, गुरु के सिद्धांतों का पालन ही गुरुदेव की सच्ची सेवा है। संदीपक, तोटकाचार्य, पूरणपोड़ा को देखो, ये इतने पढ़े-लिखे नहीं थे पर गुरुसेवा द्वारा गुरुकृपा प्राप्त कर महान हो गये। 
कलियुग में सहज, सुरक्षित साधन : गुरुआज्ञा-पालन

ऐसा ही एक किशोर ईश्वर की तीव्र तड़प के कारण घर छोड़ कुरुक्षेत्र के निकट स्थित पस्ताना के संत गुलाब गिरिजी के चरणों में पहुँचा। उनका नाम था भोलादास। वे नंदादेवी व ब्रह्मदासजी के चार पुत्रों में से द्वितीय पुत्र थे पर गुणों से अद्वितीय थे। कैसे न हों, साधुसेवा व शिवजी के कृपा - प्रसाद से जो जन्मे थे !

गुरु गुलाब गिरिजी के आश्रम में रहनेवाले शिष्य गायें चराते, खेती करते, जंगल से लकड़ी लाते, भिक्षा माँगकर ले आते। बचे समय में भजनपूजन, ध्यान, जप आदि करते।

भोलादास भी भोर में ३ बजे उठ के साधना में लग जाते, एक मन (३७ किलो) दही मथकर मक्खन निकालते, आश्रम में आनेवाले सत्संगियों के भोजन का प्रबंध करते और फिर रात को बचे समय में स्वाध्याय, ध्यान, जप आदि करते। ऊपर से गुरुजी के कटु वचनों का प्रसाद मिलता तो वह भी प्रसन्नचित्त होकर ग्रहण करते।

एक बार किसी गलती पर गुलाब गिरिजी ने बिगड़ के भोला से कहा: "निकल जा मेरे आश्रम से ! केवल कौपीन पहनकर निकल जा । आज से तेरा यहाँ से कोई संबंध नहीं।" 

गुरु की आज्ञा मानकर भोलादास अपने गुरु की कुटिया से बाहर एक पेड़ के नीचे खड़े हो गये। सर्दी की रात, बदन पर केवल कौपीन, तीर की तरह चुभती ठंडी हवा... ऐसी स्थिति में अडिग होकर खड़े इस शिष्य ने हाथ जोड़ मन-ही-मन प्रार्थना की : 'गुरुदेव ! यह शरीर भी आपका है और मैं भी आपका हूँ। आपका आश्रय छोड़कर मैं कहीं नहीं जा सकता । आपकी जो इच्छा हो सो कीजिये।'

Denne historien er fra June 2023-utgaven av Rishi Prasad Hindi.

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