शिष्य का परम धर्म
Rishi Prasad Hindi|September 2023
लाहौर निवासी भाई सुजान एक अच्छे वैद्य थे। वे लोगों का उपचार तो करते पर उनका मन अशांत और बेचैन रहता था। मन की शांति कैसे मिले इसका वे चिंतन करते रहते थे। आत्मशांति की इसी खोज ने उन्हें आनंदपुर साहिब गुरु गोविंदसिंहजी के दरबार में पहुँचा दिया। सुजानजी ने दर्शन कर मत्था टेका तो बड़ी शांति, तृप्ति मिली। उन्होंने उसी क्षण मन-ही-मन गुरु गोविंदसिंहजी को गुरु मान लिया और सोचा कि अब इन्हींके चरणों में रहूँगा।'
शिष्य का परम धर्म

पर गुरु गोविंदसिंहजी ने एक अनोखी ही लीला की। उन्होंने कहा : "सुजान ! तुम वैद्य हो। दुःखियों की सेवा करने 1 चले जाओ। उससे तुम्हें शांति प्राप्त हो जायेगी, तुम तर जाओगे। भाग जाओ !” 

भाई सुजान ने निवेदन किया : "महाराज ! किधर जाऊँ?" 

"तुम्हारी आत्मा जानती है कि किधर जाना है, आप ही ले जायेगी। बस, आनंदपुर साहिब से चले जाओ। भाग जाओ !"

इतना सुनना था कि भाई सुजान नंगे पैर ही दौड़ पड़े। भूख-प्यास का भान नहीं रहा, पैरों में छाले पड़ गये, काँटे चुभने से पैरों से खून बहने लगा फिर भी गुरु का वह बंदा रुका नहीं, बस दौड़ता ही रहा।

सूरज डूबने को था, तभी एक गाँव के नजदीक किसी चीज से ठोकर खा के वे गिर पड़े। मुख से निकला : ‘वाहे गुरु !’ और वे बेसुध-से हो गये।

लोगों ने देखा तो उन्हें गाँव में ले गये और सेवा-सुश्रूषा की। होश में आने पर गाँव के मुखिया ने उनसे पूछा : ‘‘आपको कहाँ जाना है?”

सुजानजी ने कहा : "कहीं नहीं, जहाँ पर जाना था वहाँ पर आ गया। मैं वैद्य हूँ, तन-मन लगाकर रोगियों और दुःखियों की सेवा करूँगा।’’ 

गाँववाले बड़े खुश हुए कि 'हम गरीब हैं इसलिए हमारे गाँव में कोई इलाज करने नहीं आता था पर हे रब ! तेरा लाख-लाख शुक्र है कि तूने मेहर (कृपा) करके ऐसे सेवाभावी वैद्य को भेजा।' 

सुजानजी एक झोंपड़ी में रहने लगे। 'वाहे गुरु ! वाहे गुरु!...’ सुमिरन करते, जंगल से जड़ी-बूटियाँ लाते और आये-गये रोगियों की सेवा करते। गुरुआज्ञापालन में उन्हें बड़ा आनंद आता, बड़ी शांति मिलती। 

Denne historien er fra September 2023-utgaven av Rishi Prasad Hindi.

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