
पर गुरु गोविंदसिंहजी ने एक अनोखी ही लीला की। उन्होंने कहा : "सुजान ! तुम वैद्य हो। दुःखियों की सेवा करने 1 चले जाओ। उससे तुम्हें शांति प्राप्त हो जायेगी, तुम तर जाओगे। भाग जाओ !”
भाई सुजान ने निवेदन किया : "महाराज ! किधर जाऊँ?"
"तुम्हारी आत्मा जानती है कि किधर जाना है, आप ही ले जायेगी। बस, आनंदपुर साहिब से चले जाओ। भाग जाओ !"
इतना सुनना था कि भाई सुजान नंगे पैर ही दौड़ पड़े। भूख-प्यास का भान नहीं रहा, पैरों में छाले पड़ गये, काँटे चुभने से पैरों से खून बहने लगा फिर भी गुरु का वह बंदा रुका नहीं, बस दौड़ता ही रहा।
सूरज डूबने को था, तभी एक गाँव के नजदीक किसी चीज से ठोकर खा के वे गिर पड़े। मुख से निकला : ‘वाहे गुरु !’ और वे बेसुध-से हो गये।
लोगों ने देखा तो उन्हें गाँव में ले गये और सेवा-सुश्रूषा की। होश में आने पर गाँव के मुखिया ने उनसे पूछा : ‘‘आपको कहाँ जाना है?”
सुजानजी ने कहा : "कहीं नहीं, जहाँ पर जाना था वहाँ पर आ गया। मैं वैद्य हूँ, तन-मन लगाकर रोगियों और दुःखियों की सेवा करूँगा।’’
गाँववाले बड़े खुश हुए कि 'हम गरीब हैं इसलिए हमारे गाँव में कोई इलाज करने नहीं आता था पर हे रब ! तेरा लाख-लाख शुक्र है कि तूने मेहर (कृपा) करके ऐसे सेवाभावी वैद्य को भेजा।'
सुजानजी एक झोंपड़ी में रहने लगे। 'वाहे गुरु ! वाहे गुरु!...’ सुमिरन करते, जंगल से जड़ी-बूटियाँ लाते और आये-गये रोगियों की सेवा करते। गुरुआज्ञापालन में उन्हें बड़ा आनंद आता, बड़ी शांति मिलती।
Denne historien er fra September 2023-utgaven av Rishi Prasad Hindi.
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हमें इस पर विचार करना चाहिए
चार प्रकार के आनंदाभास हमारे जीवन में भर गये हैं। एक तो हम यह समझते हैं कि यह भोगेंगे तब सुखी होंगे। अर्थात् अपने आनंद को उठाकर भोग में रख दिया। यदि भोग चला गया पेरिस तब हम दुःखी रहेंगे। दूसरा, संग्रह का आनंद अर्थात् हम इतना इकट्ठा कर लेंगे अथवा हमारे पास इतना है, इस अभिमान से हम सुखी होंगे। एक में मनुष्य संग्रह का त्याग करके भी भोग का आनंद लेता है और दूसरे में भोग का त्याग करके संग्रह का आनंद लेता है।

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शरणागत के मनोरथ पूरे करते हैं करुणावान विश्वात्मा संत
२० मार्च को 'संत एकनाथजी षष्ठी' है। एकनाथजी महाराज के जीवन का एक बहुत रोचक प्रसंग पूज्य बापूजी के सत्संग-वचनामृत में आता है :

युवाओं हेतु आदर्श जीवन का संदेश
विद्याध्ययन करते हुए आदर्श, विवेक, सारावलोकनी बुद्धि, दूरदर्शी दृष्टि एवं अपने- आपका तथा संसार का ज्ञान प्राप्त करने से पहले जो युवक अधिकार एवं सम्मान लाभ की सिद्धि के लिए दौड़ पड़ते हैं, वे भी दरिद्र ही रह जाते हैं, कोई महत्त्वपूर्ण आदर्श पदाधिकार नहीं प्राप्त कर पाते।

पूज्य बापूजी का पावन संदेश आप स्वधर्म में आ जाओ
भगवद्गीता (३.३५) में आता है : स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ||

हृदय-ग्रंथि खोलो, अपने स्वभाव को जगाओ
१३ व १४ मार्च : होलिकोत्सव पर विशेष

यह जलनेति का चमत्कार है!
जैसे टूटे-फूटे पुराने बर्तन निकाल देते हैं वैसे टूटे-फूटे पुराने चश्मे बक्से में भरे हुए थे...

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