नरेश के सद्भाव को देखते हुए दादूजी अपने शिष्यों सहित खाटू गये। किंतु पीछे से खाटू के साधुरूपधारी एक धूर्त दम्भी को यह ज्ञात हुआ। उसने राजा से कहा: "आपने दादूजी को क्यों बुलाया है? यह व्यर्थ का खर्च और झमेला क्यों मोल ले लिया?"
राजा ने कहा: "दादूजी बहुत 'अच्छे संत हैं और मेरे चाचा भीमसिंह भी उनके शिष्य हैं।"
'अच्छापन तो दादू ने त्याग दिया है। वह माला, तिलक धारण नहीं करता है...' इत्यादिक बहुत-सी ईर्ष्याभरी मनगढ़ंत बातें कहकर उस धूर्त ने राजा को भड़का दिया।
राजा ने कहा: "अब बुला ही लिया है तो उनके पास तो जाना ही पड़ेगा।"
दम्भी बोला: "अनादर कर देना चाहिए तब वह अपने-आप ही यहाँ से चला जायेगा।"
उसकी बातों का ऐसा प्रभाव पड़ा कि राजा के हृदय में दादूजी के प्रति जो सद्भाव था वह दोष-दर्शन में बदल गया। उसको दादूजी के आने की सूचना मिली पर निंदक के चक्कर में आ के श्रद्धा कम हो जाने से उसने उनका स्वागत-सत्कार नहीं किया।
दम्भी ने राजा से कहा: "दादू आ ही गया है तो उसे एक माला अवश्य धारण करवा दो। अगर मना करे तो उसे मरवा दो।"
Denne historien er fra July 2024-utgaven av Rishi Prasad Hindi.
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