पटना में हिंदुस्तान अखबार के दफ्तर से लौटते वक्त शाम को विशाल कुमार सिन्हा कुछ ज्यादा ही थकामांदा महसूस कर रहा था. उस का दिमाग एक रिपोर्टिंग के सिलसिले में बुरी तरह से भन्ना गया था. राजनीति और सत्ता की आड़ में अवैध काम की एक खबर से वह पिछले 4-5 दिनों से तिलमिलाया हुआ था. उस से भी अधिक बेचैनी उस खबर को रोकने के लिए पड़ने वाले दबाव को ले कर थी, जो एक खास करीबी के खिलाफ थी.
इस कारण मानसिक तौर पर बेहद थक चुका था. दिमाग में अस्थिरता थी. अलगअलग बातें एकदूसरे पर हावी होने को बेचैन थीं. वैसे वह जब भी इस हालत में होता था, तब अकसर पुराने फिल्मी गाने सुन लिया करता था.
बात इसी जुलाई महीने की है. उस रोज भी उस ने अपनी दिमागी थकान को दूर करने के लिए कान में लीड लगा ली थी. मोबाइल के म्यूजिक स्टोर से वह अपने मनपसंद गाने सर्च करने लगा था. पसंद का वही गाना मिल गया था, जिसे कई बार सुन चुका था, 'न सिर झुका के जिओ, न मुंह छुपा के जिओ...'
महेंद्र कपूर के इस गाने से उस का मूड थोड़ा बदल चुका था. उस गाने के खत्म होते ही मोहम्मद रफी का गाना बज उठा, 'मतलब निकल गया है तो पहचानते नहीं... यूं जा रहे हैं ऐसे कि जानते नहीं...' इस गाने ने उस के दिमाग में एक बार फिर से हलचल पैदा कर दी थी. उस के दिमाग में अचानक अपनी मकान मालकिन वंदना सिंह की तसवीर उभर गई. वह चौंक गया. उस से जुड़ी हालफिलहाल की कुछ बातें और पुरानी यादें एकदूसरे से टकराने लगीं. वह गानों को भूल कर उस के बारे में सोचने लगा.
वह कह रही थी, 'दम है तो कर के दिखाओ... यह लो मेरा रिवाल्वर. अगर तुम ने वह कर दिखाया, तब समझंगी कि तुम कितने दमखम वाले हो. अपने वादे पर चलने वाले हो.'
इन बातों के दिमाग में घूमते ही विशाल के चेहरे का रंग बदलने लगा. दिमाग में गाने के बोल 'मतलब निकल गया है तो...' भी वंदना के चेहरे, रिवाल्वर और उस की मोहक अदाओं के साथ घूमने लगे थे.
खैर, घर देर शाम विशाल खगौल स्थित किराए के मकान में पहुंचा. सीधा अपने कमरे में चला गया.
घुमड़ने लगीं वंदना की बातें
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