आज सुबह से ही न जाने क्यों मेरा मन किसी काम में नहीं लग रहा था. किसी अनहोनी आशंका से मेरा मन घिरा हुआ था. मैं चाहते हुए भी स्वयं को संयत नहीं रख पा रहा था. जल्दीजल्दी नाश्ता किया और औफिस के लिए निकल पड़ा. मेरी पत्नी मानसी ने एकदो बार पूछा भी परंतु मैं उसे कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाया. बस, अनमने मन से कहा, "नहीं, बस यूं ही, औफिस में थोड़ा ज्यादा काम है." कह कर मैं ने बात टाल दी.
अभी मैं अपने घर के दरवाजे तक भी नहीं पहुंचा था कि पीछे से मानसी ने आवाज दे कर याद दिलाया कि आप कार की चाबी और टिफिन बौक्स तो घर पर ही भूल गए हैं. वह मेरे पास आ कर बोली, "तबीयत ठीक नहीं है तो मत जाओ."
जवाब में मैं ने कुछ नहीं कहा और बेमन से औफिस चला गया.
अभी मैं औफिस में अपने कामों को देख ही रहा था कि याद आया आज तो मैं ने अपनी केबिन में रखे छोटे से मंदिर की दीयाबाती भी नहीं की. क्या हो गया है मुझे आज! मैं सोचने लगा.
तब तक औफिस का चपरासी टेबल पर चाय और पानी का गिलास रख कर जाने लगा तो मैं ने उस से कहा, "मिसेज शर्मा को भेज देना." फिर कुछ सोच कर बोला, "अच्छा रहने दो, मैं बाद में बुला लूंगा." वह मेरा मुंह देखने लगा.
हमारे औफिस में मोबाइल सुनने पर पाबंदी थी, इसलिए सभी स्टाफ अपना मोबाइल साइलेंट मोड पर रखते थे. मैं ने भी अपना फोन वाइब्रेट मोड पर रख कर सामने रख दिया. तभी फोन धीरे से बज उठा. किसी अंजान नंबर से फोन था.
मैंने जैसे ही रिसीव किया तो दूसरी तरफ से किसी महिला की आवाज आई, "नमस्ते सर, क्या मैं सुनीलजी से बात कर सकती हूं?"
"जी, बोल रहा हूं...आप कौन?"
"मैं देहरादून से बोल रही हूं' बसेरा' से."
मैं चौंक गया. 'बसेरा' वृद्ध असहाय लोगों का एक आश्रम था, जिसे एक एनजीओ चलाता था.
"जी, बात यह है कि आप को प्रशांतजी याद कर रहे थे...आज आप यहां आ सकते हैं क्या?"
"क्यों, क्या बात हो गई? सब ठीक तो है न?" मैं ने चिंतित होते हुए पूछा.
"सब कुछ तो ठीक नहीं है, बस आप यहां आ जाइए."
"ठीक है, मैं एकदो दिन में आता हूं," मैं ने कहा.
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