मिसाल :
उन्होंने इस बात को गलत साबित कर दिया है कि पढ़ाई लिखाई और पैसे के बिना इनसान कुछ नहीं कर सकता. अगर इनसान में कुछ करगुजरने का जज्बा हो, तो गरीबी के बीच पल कर भी वह अपनी मंजिल तक पहुंच सकता है, रास्ते के हर पत्थर को ठोकर मारते हुए आगे निकल सकता है.
पाबिबेन रबारी ने एक कारीगर के तौर पर रबारी समुदाय की खत्म हो रही पारंपरिक कढ़ाईबुनाई कला को न सिर्फ बचाया, बल्कि दुनिया में उसे एक नई पहचान भी दिलाई और खुद को एक मजबूत औरत के तौर पर स्थापित भी किया. यही वजह है कि आज वे इंटरनैट पर छाई हुई हैं. पूरी दुनिया में उन की एक अलग पहचान है.
पेश है, पाबिबेन रबारी से हुई बातचीत के खास अंश :
आप अपने बचपन के बारे में कुछ बताइए ?
मेरा जन्म मुंद्रा तालुका के कुकड़सर गांव में साल 1984 में हुआ था. हमारे रबारी समाज का मूल काम भेड़बकरियां चराना है. लिहाजा, मेरे पापा भी भेड़बकरियां चराते थे.
तब हम 2 बहनें थीं और तीसरी बहन मां के पेट में थी. एक दिन जब मेरे पापा भेड़बकरियों को पानी पिलाने के लिए कुएं से पानी भरने लगे, तो उन का पैर फिसल गया और कुएं में गिरने से उन की मौत हो गई. दूसरी बार परिवार पर दुखों का पहाड़ तब टूट पड़ा, जब 2 महीने बाद घर में तीसरी भी बेटी ही आई.
आज भले ही लोगों की सोच बदल रही है और बेटियों को महत्त्व दिया जाने लगा है, पर उस जमाने में बेटियों का कोई मोल नहीं था. बेटों को ही सबकुछ समझा जाता था, इसलिए लोगों को बेटा तो चाहिए ही था.
आप के पापा के गुजर जाने के बाद आप की मां ने आप तीनों बहनों को कैसे संभाला ?
पापा के गुजर जाने के बाद हमारे पास आजीविका का कोई साधन नहीं था, इसलिए मां लोगों के घरों में काम करने लगीं और साथ में मजदूरी भी. उस समय मैं घर पर रह कर अपनी छोटी बहनों का ध्यान रखती थी.
बाकी बच्चों को स्कूल जाते देख कर क्या आप का मन नहीं करता था ?
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