किन वजहों से बनते हैं नक्सली
Saras Salil - Hindi|November Second 2022
साल 1967 में पश्चिम बंगाल नक्सलबाड़ी नामक गांव से कानू सान्याल व चारू मजूमदार की अगुआई में माओवादी नक्सलवादी आंदोलन की शुरुआत हुई थी. वजह, लोग नक्सलबाड़ी में जमींदारों और साहूकारों से भयावह रूप से शोषित व आतंकित थे.
वीरेंद्र देवांगन
किन वजहों से बनते हैं नक्सली

कर्ज के चलते चाय बागानों की जमीनें अमीरों के पास गिरवी रखी हुई थीं. इस के एवज में जहां एक तरफ किसानों को बंधुआ मजदूरी करनी पड़ती थी, वहीं दूसरी तरफ जमीनें हड़पने के लिए उन का संहार किया जा रहा था.

शुरुआती दौर में प्रताड़ित किसान दबदबे वाले तबके से अपनी जमीनें वापस लेने व बदला लेने की खातिर कानू सान्याल जैसे नेताओं के उग्र विचारों से प्रभावित हो कर हथियार उठा कर नक्सलवादी बन गए.

इस के बाद माओवाद का सशस्त्र व उग्र रूप वहां से निकल कर उन इलाकों में फैलने लगा, जहां घनघोर जंगल था और विकास की रोशनी की बाट जोह रहा था. जब उन्होंने देखा कि वनांचलों में व्यापारियों, ठेकेदारों, नेताओं व अधिकारियों की चांडालचौकड़ी द्वारा वनवासियों का शोषण किया जा रहा है, तब उन्होंने बंदूक के दम पर इन शोषणकारियों से वनवासियों को मुक्त करने का काम अपने हाथ में ले लिया.

दरअसल, वनीय क्षेत्रों के हाटबाजारों में कारोबारी नमक, कपड़ा व तेल के बदले में वनवासियों की कीमती जंगल में उपजी चीजें जैसे चिरौंजी, काजू, साल बीज, महुआ, टोरा, तेंदू, हर्रा, बहेड़ा, आंवला, कोसा वगैरह कौड़ियों के मोल खरीद लेते थे.

इन्हीं वनांचलों को मिला कर उन्होंने पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट औफ इंडिया (पीएलएफआई) व 'रैड कौरीडोर' बनाया, जो नेपाल से बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र जैसे वनीय व सीमांत क्षेत्रों में फैलने लगा और नक्सलवाद नामक विचारधारा फलफूल कर परवान चढ़ गई.

देश का यही वह इलाका है, जहां अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की बहुलता है और जो बहुत ज्यादा गरीब, अशिक्षित व शोषित हैं.

बहरहाल, नक्सलवादियों की धमक से जहां प्रशासन के कान खड़े हो गए, वहीं शासन ने बेशकीमती जंगल से मिलने वाली चीजों की कीमत तय करनी शुरू कर दी, जो नक्सली आंदोलन की देन कही जा सकती है.

अभी तक नक्सलवादी सिद्धांतवादी थे और आंदोलन को सिद्धांत के बल पर चला रहे थे, तभी उन्हें जंगल में भ्रष्टाचार का एक ऐसा कुचक्र दिखा, जिस में बेशकीमती लकड़ियों को वन माफिया द्वारा वन अधिकारियों की मिलीभगत से एक राज्य की सीमा से दूसरे राज्य की सीमा के पार किया जा रहा था.

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