आदिवासी आरक्षण सवालों की सूली पर
Saras Salil - Hindi|January Second 2023
होना तो यह चाहिए था कि आदिवासी 31 के नाते समुदाय की होने छत्तीसगढ़ की राज्यपाल अनुसुइया उइके नए विधेयक का स्वागत करते हुए न केवल उस पर दस्तखत कर अपनी मंजूरी देतीं, बल्कि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का शुक्रिया भी अदा करतीं, जो उन्होंने गैरआदिवासी होते हुए भी आदिवासियों के भले की पहल की, लेकिन हुआ उलटा.
भारत भूषण श्रीवास्तव
आदिवासी आरक्षण सवालों की सूली पर

राज्यपाल महोदया ने विधेयक को सवालों की सूली पर लटका कर जता दिया कि उन्हें अपने समाज के लोगों की बदहाली से ज्यादा भगवा गैंग के उन उसूलों की फिक्र है, जिन के तहत आदिवासियों को पिछड़ा और बदहाल बनाए रखने की साजिश सदियों से रची जाती रही है.

राजनीति में दिलचस्पी और दखल रखने वालों को बेहतर याद होगा कि ये वही अनुसुइया उइके हैं, जिन का नाम राष्ट्रपति पद के लिए द्रौपदी मुर्मू से पहले और ज्यादा चला था, क्योंकि उन के पास अनुभव ज्यादा है और वे खासी पढ़ीलिखी भी हैं.

अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले के तामिया के कालेज में असिस्टैंट प्रोफैसर की नौकरी करते हुए वे समाजसेवा के कामों में भी हिस्सा लेने लगी थीं और आदिवासी हितों खासतौर से औरतों के मुद्दे जोरशोर से उठाया करती थीं.

अब से तकरीबन 35 साल पहले मध्य प्रदेश की राजनीति में आदिवासी मर्द तो कई थे, लेकिन औरतों का टोटा था. तब छिंदवाडा के सांसद कमलनाथ की नजर तेजतर्रार बौयकट बाल रखने वाली अनुसुइया उइके पर पड़ी और वे उन्हें सक्रिय राजनीति में ले आए. आदिवासियों ने भी उन्हें हाथोंहाथ लिया और साल 1985 में दमुआ विधानसभा से उन्हें कांग्रेस के टिकट से जिता कर विधानसभा भेजा.

बाद में मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया. उस वक्त में धाकड़ आदिवासी नेता जमुना देवी के बाद अनुसुइया उइके दूसरी नेत्री थीं, जिन से आदिवासियों ने कई उम्मीदें बांध ली थीं.

ये उम्मीदें तब टूटी थीं, जब अनुसुइया उइके कांग्रेस छोड़ कर भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गईं थीं और उन्होंने आदिवासियों के हक का राग अलापना बंद कर दिया था. साल 2019 में छत्तीसगढ़ का राज्यपाल बना कर भाजपा ने उन्हें उन की वफादारी का इनाम दे दिया था. राष्ट्रपति पद की दौड़ में वे केवल इसलिए पिछड़ गई थीं, क्योंकि उन पर कांग्रेसी होने का ठप्पा लगा था.

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