कोविड महामारी के बाद हिंदी फिल्में लगातार बॉक्स ऑफिस पर धराशायी हो रही हैं। इतना ही नहीं, ओटीटी प्लेटफॉर्म पर भी दर्शक हिंदी फिल्मों से दूरी बनाने लगे हैं। इसके बावजूद हिंदीभाषी क्षेत्र बिहार के एक गांव से आनेवाले अभिनेता पंकज त्रिपाठी अपनी सफलता का डंका ओटीटी के साथ साथ सिनेमाघरों में भी लगातार बजा रहे हैं। उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार, फिल्मफेअर पुरस्कार, आइफा अवार्ड, स्क्रीन अवार्ड आदि से नवाजा जा चुका है। प्रस्तुत पंकज त्रिपाठी से हुई बातचीत के प्रमुख अंश-
बचपन में खेतों में पिता का हाथ बंटाते-बंटाते अभिनेता कैसे बन गए?
मैंने अभिनय को नहीं चुना, बल्कि अभिनय ने मुझे चुना है। स्नातक तक की पढ़ाई करने तक मैं नहीं जानता था कि कभी मैं अभिनय करूंगा। वास्तव में मेरे गांव में छठ पूजा या कोई दूसरा त्योहार हो, तो उस दिन नाटक करने की परंपरा है। इस नाटक में गांव के लोग ही अभिनय किया करते हैं। एक बार यह हुआ कि नाटक में लड़की का किरदार निभानेवाला लड़का छठ के अवसर पर गांव नहीं पहुंच पाया, तब मैंने लड़की बन कर लौंडिया डांस किया था। यह नाटक तो मजाक में ही किया था, लेकिन हालात मुझे रंगमंच से जोड़ते गए और मैंने 1996 से 2001 तक पटना में रहते हुए नाटकों में अभिनय किया। फिर मैंने दिल्ली के नेशनल स्कूल आफ ड्रामा से ट्रेनिंग ली। ट्रेनिंग पूरी होते ही मुझे घर बैठे फिल्म रन में छोटा सा किरदार निभाने का अवसर मिल गया था। फिर 16 अक्तूबर 2004 को मैं मुंबई आ गया और स्ट्रगल का दौर चला। ऑडीशन का संघर्ष फिल्म न्यूटन तक चला, लेकिन अब मेरा अभिनय कैरिअर सरपट दौड़ रहा है।
अब आपका कैरिअर किस दिशा में जाता नजर आ रहा है?
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