झक सफेद कुर्ता-पाजामा.... व्यक्तित्व में गांभीर्य, आंखों में बच्चों सी उत्सुकता और मासूमियत वाले संपूर्ण सिंह कालरा यानी गुलजार... बरसों से उन्हें ऐसे ही देखते आ रहे हैं। आंधी, मासूम, मौसम, परिचय, खुशबू, गुड्डी, इजाजत, लेकिन, माचिस, हुतूतू, स्लमडॉग मिलेनियर जैसी फिल्मों तक ना सिर्फ उनके लिखे गीत मशहूर हुए बल्कि उनकी पटकथाएं - संवाद भी लोगों के दिलो-दिमाग को छूते रहे। मौसम फिल्म का गीत दिल ढूंढ़ता है... या फिल्म आंधी के सारे गीत एक अजीब सा नॉस्टेल्जिया मन में पैदा करते हैं। उम्र के 89वें पायदान पर उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला है। उनसे मुलाकात हुई बांद्रा पाली हिल स्थित उनके बंगले बोस्कीयाना में। बोस्की उनकी और राखी की बेटी मेघना गुलजार का पुकारने वाला नाम है।
आप पोएट्री भी लिखते हैं, मगर लोगों को फिल्मी गाने ज्यादा याद रहते हैं। अब जब आपको ज्ञानपीठ मिला तो क्या महसूस कर रहे हैं?
सभी का शुक्रिया कहना चाहता हूं। मुझे हमेशा से लगता था कि फिल्मों के कारण पोएट्री पीछे हो गयी थी, जबकि साहित्य के प्रति मेरा जो पैशन है, वह फिल्मों से ज्यादा गहरा है। बहरहाल, मेरी गलतफहमी दूर हुई। मेरे जन्मदिन पर भी इतने संदेश कभी नहीं आए, जितना इस पुरस्कार के मिलने के बाद आए हैं। मेरा साहित्यिक योगदान रजिस्टर हुआ है। मैं भावुक हूं- कृतज्ञ हूं सबका, जूरी मेंबर्स का।
फिल्मों और साहित्य के बीच आपने इतना खूबसूरत संतुलन कैसे बिठाए रखा?
फिल्मों में मैंने नहीं आना चाहा था। जब से होश संभाला, खुद को किताबों, साहित्य, कविताओं में डूबा पाया। साहित्य और फिल्मों के बीच संतुलन भी सोच-समझ कर नहीं बिठाया, बस खुद बनता गया। फिल्मी गीतों ने मुझे नाम-दाम दिया, इसी से जीवन में स्थिरता आयी लेकिन साहित्य व कविताओं में मेरी रूह बसती है, इसलिए बाद के दौर में मैंने फिल्में कम कीं, लिखना पढ़ना जारी रखा।
हिंदी, उर्दू और बांग्ला साहित्य पर आपकी जबर्दस्त पकड़ है। आपकी रचनाओं में ठेठ पंजाबी व उर्दू के शब्द आते हैं। ऐसा कैसे संभव हुआ?
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