
जुआ खेलने की प्रथा प्रत्येक देश में तथा हर जमाने में अलगअलग रूपों में मौजूद रही है तथा इसमें अपना वर्तमान तथा भविष्य लुटा देने वालों की भी कमी नहीं रही।
मनोरंजन के ही एक साधन के रूप में वैदिक काल से ही धूतक्रीड़ा की परंपरा रही है। उत्तर वैदिक साहित्य में हमें इसकी विस्तार से विवेचना मिलती है। खुदाई से हासिल सामग्रियां भी इस बात का प्रमाण है। कि मनोरंजन के एक साधन के रूप में इसका प्रचलन आम एवं खास दोनों वर्गों में था। वैदिक साहित्य में हमें पांसों की विवेचना मिलती है। ये पांसे खासतौर पर चौकोर होते थे और इनका उपयोग 'चौपड़' खेलने में किया जाता था। कौटिल्य ने पांसों के लिए वाकड़ी अथवा कौड़ी शब्द का उपयोग किया।
रामायण, महाभारत में भी है जुए का उल्लेख
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