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धार्मिक मान्यताओं के लिए पूरे विश्व में अलग पहचान रखने वाले भारतवर्ष में कांवड़ यात्रा के दौरान भोले के भक्तों में अद्भुत आस्था, उत्साह और अगाध भक्ति के दर्शन होते हैं। कांवड़ियों के सैलाब में रंग-बिरंगे कांवड़ देखते ही बनते हैं।
कांवड़ का अर्थ
कांवड़ का मूल शब्द 'कावर' है जिसका सीधा अर्थ कंधे से है। शिव भक्त अपने कंधे पर पवित्र जल का कलश लेकर पैदल यात्रा करते हुए ईष्ट शिवलिंगों तक पहुंचते हैं। कांवड़ का एक और अर्थ परस्पर शिव के साथ विहार भी है।
कैसे हुई शुरुआत?
• ऐसा माना जाता है कि भगवान राम पहले कांवड़ियां थे। श्री राम ने बिहार के सुल्तानगंज से कांवड़ में गंगाजल लाकर झारखंड राज्य के देवघर स्थित बाबाधाम के शिवलिंग का जलाभिषेक किया था।
• कुछ लोगों का मानना है कि पहली बार श्रवण कुमार ने त्रेता युग में कांवड़ यात्रा की शुरुआत की थी। अपने दृष्टिहीन माता-पिता को तीर्थ यात्रा कराते समय जब वह हिमाचल के ऊना में थे तब उनसे उनके माता-पिता ने हरिद्वार में गंगा स्नान करने की इच्छा के बारे में बताया। उनकी इस इच्छा को पूरा करने के लिए श्रवण कुमार ने उन्हें कांवड़ में बैठाया और हरिद्वार लाकर गंगा स्नान कराए। वहां से वह अपने साथ गंगाजल भी लाए। माना जाता है तभी से कांवड़ यात्रा की शुरुआत हुई।
• पुराणों के अनुसार इस यात्रा की शुरुआत समुद्र मंथन के समय हुई थी। मंथन से निकले विष को पीने की वजह से शिवजी का कंठ नीला पड़ गया था और तब से वह नीलकंठ कहलाए। इसी के साथ विष का बुरा असर भी शिव पर पड़ा। विष के प्रभाव को दूर करने के लिए शिवभक्त रावण ने तप किया। इसके बाद दशानन कांवड़ में जल भरकर लाया और शिवजी का जलाभिषेक किया। इसके बाद शिवजी विष के प्रभाव से मुक्त हुए। कहते हैं तभी से कांवड़ यात्रा शुरू हुई।
Diese Geschichte stammt aus der July 2023-Ausgabe von Sadhana Path.
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प्रकृति में बसंत के आगमन की टोह मन में एक नए उल्लास, आशा एवं अचानक ही लगता है कि मन प्रसन्न एवं प्रफुल्लित हो उठा है। परिवर्तन में भावों की पावन धाराएं बहने लगी हैं और हमारे तन, मन और व्यवहार में सुंदर एवं सुमधुर अभिव्यक्तियां झलकने लगती हैं। कहते हैं, प्रकृति जब मुस्कुराने लगती है, तब उसके अंतर्गत आने वाले सभी जड़-जीव एवं मनुष्यों में मुस्कुराहट फैल जाती है।