जब लबालब थे तालाब
Aha Zindagi|August 2024
...तब जीवन भी ख़ुशियों से लबालब हुआ करता था। पानी की तरह था समाज- साथ खेलने वाला, मिलजुलकर पर्व-उत्सव मनाने वाला और जुटकर काम करने वाला। तालाब सूखे तो शायद समाज का पानी भी सूख गया। अब तो सावन भी सूखे तालाबों को जिला नहीं पाता।
लोकेन्द्रसिंह किलाणौत
जब लबालब थे तालाब

सावन की रिमझिम फुहारों के बीच मेरे भीगे पांव फिसलकर बचपन के अतीत में जा गिरते हैं और मैं ख़ुद को एक तालाब की पाल पर खड़ा पाता हूं। हमारी पीढ़ी के पास बाली उमर की यादों के संदूक में आख़िर क्या जमा है ? संतरे की मीठी गोलियां, दादी-नानी की कहानियां, अल्हड़पन के खेल और गांव का एक तालाब। हम सबका बचपन गांव के तालाब की पाल पर ढूंढा जा सकता है। हर तालाब की पाल हमारे बचपन के मीठे अतीत को समेटे हुए है। लेकिन अब वहां पर एक सन्नाटा पसरा है। उसकी चिकनी मिट्टी पर लुढ़कते मिलेंगे हमारे रिवाज, दफ़न मिल जाएंगी परंपराएं और ख़ामोश मिलेंगे लोकगीत। यह सन्नाटा गांव, समाज और इस महादेश की दुर्दशा की जड़ों सुनाई देता है।

पानी यानी ख़ुशहाल जिंदगानी

मेरे गांव के हिस्से में कुल तीन तालाब आए दो छोटे तालाब जिन्हें हम तलाई कहते थे और एक बड़ा तालाब जो गांव के बाहर है। यह जो बड़ा तालाब है वह अब अतीत का गड्ढा मालूम होता है। और अब नन्हे पांवों की पैजनियां उसकी पाल पर नहीं पहुंचती। कभी हमने अपना बचपन इसी पाल पर न्योछावर कर दिया था। थोड़ा ठहरकर सोचता हूं तो मालूम होता है कि हमारी बाली उमर भी तो इसी तालाब में जमा पानी के जैसी गदली और छिछली थी जिसे एक सावन बरसाने का इंतज़ार होता था। जब दादाजी गांव के प्रधान बने तो पंचायत के बजट से इस तालाब की पाल को पक्का करवा दिया था। आज भी जब इस पक्की पाल से नजरें टकराती हैं तो दादाजी की स्मृतियों और पाल पर बीते बचपन से अनायास ही मुठभेड़ हो जाती है। हमारा क्रिकेट और गिल्लीडंडे का मैदान भी इस तालाब के क़रीब था। आज भी याद है, जब आषाढ़ के महीने में अच्छी बारिश होती थी तो पूरा गांव तालाब पर इकट्ठा होकर पानी का स्तर जांचता और मालूम करता कि इस बार बारिश का संवत कितना अच्छा होने वाला है। तभी किसी बुजुर्ग की जुबान से कोई क़िस्सा निकल पड़ता कि आज से बीस साल पहले फलां संवत में यह तालाब इतना भर गया था और अच्छी फ़सल हुई थी। तालाब का भरा रहना गांव में अच्छी फ़सल और ख़ुशहाली का प्रतीक था।

पाल होती थी उत्सव की भूमि

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