
सर्दियों का अपना अलग ही राग होता है, जिसमें कभी ठिठुरन की थाप है तो कभी धूप की मृदुलता। सर्दी का मौसम केवल ठंड का परिचायक नहीं है, यह वह काव्यात्मक अनुभूति है जो हमें जीवन के नए अर्थों से रूबरू कराती है। सर्दी के मौसम का वह 'राग-रंग' सजीव हो उठता है जो हमें हमारे परिवेश से जोड़ता है, हमारी जड़ों से परिचित कराता है।
सर्दियों की भोर उस नवजात शिशु के समान है जिसे अपनी कोमलता से ही संसार को आकर्षित करना आता है। इसमें वह लालित्य छिपा है जो सर्दियों की हर सुबह में दिखाई देता है। सुबह का सूरज कोहरे को चीरता हुआ धीरे-धीरे धरती पर उतरता है जैसे मां की गोद में सुकून से सोया हुआ कोई बालक। यह दृश्य, मानो धरती और आकाश के मध्य एक कोमल संबंध की गाथा कह रहा हो।
सर्दियों के दिन छोटे और रातें लंबी हो जाती हैं। जैसे-जैसे रात गहराती है, ठंड भी तीव्र होने लगती है लेकिन यह ठंड हमें अनचाहे रूप में नहीं घेरती बल्कि जैसे कोई मीत पास आकर धीरे-धीरे गुदगुदी करता है। ठंड का यह आलिंगन न केवल शरीर को बल्कि आत्मा को भी गुनगुना करता है। उनकी इस भावना में वह आत्मीयता निहित है जो सर्दियों के मौसम को महज़ एक ऋतु नहीं बल्कि जीवन की एक अनिवार्य सजीवता बनाती है।
जैसे अपने भीतर जीवन का नवपथ
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वन के दम पर हैं हम
भौतिक विकास के रथ पर सवार मानव स्वयं को भले ही सर्वशक्तिमान और सर्वसमर्थ समझ ले, किंतु उसका जीवन विभिन्न जीव-जंतुओं से लेकर मौसम और जल जैसे प्रकृति के आधारभूत तत्वों पर आश्रित है।

दिखता नहीं, वह भी बह जाता है!
जब भी पानी की बर्बादी की बात होती है तो अक्सर लोग नल से बहते पानी, प्रदूषित होते जलस्रोत या भूजल के अंधाधुंध दोहन की ओर इशारा करते हैं।

वन का हर घर मंदिर
जनजाति समाज घर की ड्योढ़ी को भी देवी स्वरूप मानता है। चौखट और डांडे में देवता देखता है। यहां तक कि घर के बाहर प्रांगण में लगी किवाडी पर भी देवता का वास माना जाता है।

ताक-ताक की बात है
पहले घरों में ताक होते थे जहां ज़रूरी वस्तुएं रखी जाती थीं। अब सपाट दीवारें हैं और हम ताक में रहने लगे हैं।

किताबें पढ़ने वाली हीरोइन.
बॉलीवुड में उनका प्रवेश मानो फूलों की राह पर चलकर हुआ। उनकी शुरुआती दो फिल्मों- कहो ना प्यार है और ग़दर-ने इतिहास रच दिया। बाद में भी कई अच्छी फिल्मों से उनका नाम जुड़ा।

फ़ायदे के रस से भरे नींबू
रायबरेली के 'लेमन मैन' आनंद मिश्रा को कौन नहीं जानता! अच्छी आय की नौकरी को छोड़कर वे पैतृक गांव में लौटे और दो एकड़ कृषि भूमि पर नींबू की खेती करके राष्ट्रीय पहचान बनाई। प्रस्तुत है, उनकी कहानी, उन्हीं की जुबानी।

जहां देखो वहां आसन
योगासन शरीर को तोड़ना-मरोड़ना नहीं है, बल्कि ये प्रकृति की सहज गतियां और स्थितियां हैं। आस-पास नज़रें दौड़ाकर देखने से पता लगेगा कि सभी आसन जीव-जंतुओं और वनस्पतियों से ही प्रेरित हैं, चाहे वो जंगल का राजा हो, फूलों पर मंडराने वाली तितली या ताड़ का पेड़।

बांटने में ही आनंद है
दुनिया में लोग सामान्यत: लेने खड़े हैं, कुछ तो छीनने भी । दान तो देने का भाव है, वह कैसे आएगा! इसलिए दान के नाम पर सौदेबाज़ी होती है, फ़ायदा ढूंढा जाता है। इसके ठीक उलट, वास्तविक दान होता है स्वांतः सुखाय- जिसमें देने वाले की आत्मा प्रसन्न होती है।
बहानेबाज़ी भी एक कला है!
कई बार कितनी भी कोशिश कर लो, ऑफिस पहुंचने में देर हो ही जाती है, ऐसे में कुछ लोग मासूम-सी शक्ल बना लेते हैं तो कुछ लोग आत्मविश्वास के साथ कुछ बहाना पेश करते हैं। और बहाने भी ऐसे कि हंसी छूट जाए। बात इन्हीं बहानेबाज़ लोगों की हो रही है।

बहानेबाज़ी भी एक कला है!
कई बार कितनी भी कोशिश कर लो, ऑफिस पहुंचने में देर हो ही जाती है, ऐसे में कुछ लोग मासूम-सी शक्ल बना लेते हैं तो कुछ लोग आत्मविश्वास के साथ कुछ बहाना पेश करते हैं। और बहाने भी ऐसे कि हंसी छूट जाए। बात इन्हीं बहानेबाज़ लोगों की हो रही है।