दीवाली नोस्टेलजिया से बचें
Mukta|October 2024
कई लोग ऐसे होते हैं जो फैस्टिव नोस्टेलजिया में फंसे रहते हैं और अपना आज खराब कर रहे होते हैं जबकि समझने की जरूरत है कि समय जब बदलता है तो उस के साथ नजरिया और चीजें भी बदलती हैं.
ललिता गोयल
दीवाली नोस्टेलजिया से बचें

रितिका की मौम अपनी स्कूलफ्रैंड से फोन कौल पर अपने समय की दीवाली के त्योहार से जुड़े नोस्टेलजिक पलों को याद कर रही थीं, 'यार, अब दीवाली में वह मजा नहीं रहा. दीवाली की वह रौनक ही नहीं रही अब, जो हमारे टाइम पर होती थी. दीवाली तो है, पर वह खुशियां नहीं. घर में कई दिनों पहले बनने वाले खाने के तरहतरह के पकवान, मिठाइयां, मां की मदद से चकली, शक्करपारे, चिवड़ा वगैरह बनाना. उस समय सब एकसाथ बैठ कर खाना खाते थे, खूब पटाखे जलाते थे. आज न तो वह दीवाली है और न ही वह खुशियां.

'याद है तुम्हें, उन पटाखे जलाने का भी अपना मजा था. कैसे हम पटाखे धूप में रखते थे कि अगर धूप में नहीं रखे तो वे फुस्स हो जाएंगे. हमें जो फुलझड़ियां मिलती थीं और उन्हें जला कर हम कितना खुश होते थे. अब तो बच्चे दीये कम बल्कि बिजली वाली एलईडी लाइट्स ज्यादा लगाते हैं.'

'हां यार, दीवाली के कई दिनों पहले ही हम बाजार से दीये ले कर आते थे और अपने परिवार वालों से ज्यादा दीये लेने की जिद करते थे ताकि दीवाली पर घर सजाने में कोई कसर न रह जाए. बारीबारी दीयों में तेल डालना, बधाई देने और मिलने अपने रिश्तेदारों के यहां जाना. सही बात है, यार. चल, फिर बाद में बात करते हैं,' कह कर रितिका की मौम ने फोन रख दिया.

16 साल की रितिका अपनी मौम के पास पहुंची और बोली, "मौम, माना कि बदलते दौर में बहुतकुछ बदला है, दीवाली मनाने के तरीके भी बदल गए हैं. हर पीढ़ी दीवाली को अपने ढंग से मनाती है लेकिन मुझे लगता है, हमें बदलते समय के साथ बदलना चाहिए और हल पल को एंजौय करना चाहिए." यह कह कर वह अपनी मौम के गले लग गई.

पुराने समय से कंपैरिजन करने में कोई समझदारी नहीं

This story is from the October 2024 edition of Mukta.

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