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रमेश चंद्र गुप्ता, 65 वर्ष निदेशक, शिव शक्ति स्टील, दादीजी स्टील व अन्य कंपनियां
चालीसेक साल पहले की बात है. पटना शहर के पुराने इलाके में उनकी एक छोटी सी फाउंड्री थी. जिस फाउंड्री में वे डीजल इंजन के स्पेयर पार्ट तैयार करते और अपनी राजदूत मोटसाइकिल के पीछे लादकर पटना और आसपास के कई जिलों में उसे घूम-घूमकर दुकानों को बेचते. सालभर में बमुश्किल बीस हजार रुपए आमदनी होती. मगर वे उससे भी खुश थे, क्योंकि उन्होंने पांच सौ रुपए महीने की नौकरी छोड़कर यह फैक्ट्री शुरू की थी.
मगर आज बिहार में उनकी स्टील रॉड की तीन बड़ी कंपनियां हैं. इसके अलावा एक कंपनी पीवीसी पाइप की है और एक मेडिकल सिरिंज की. 40 साल की मेहनत में आज वे बिहार के उन बड़े उद्यमियों में गिने जाते हैं, जिन्होंने अपने दम पर अपना औद्योगिक साम्राज्य खड़ा किया है. यह कहानी रमेश चंद्र गुप्ता की है.
रमेश चंद्र गुप्ता पटना की एग्जिबिशन रोड की एक सामान्य सी इमारत के टॉप फ्लोर पर बने अपने दफ्तर में मिलते हैं. वे बताते हैं," 1979-80 में जब मैंने अपनी पहली छोटीसी फैक्ट्री शुरू की थी तो अपना माल इसी एग्जिबिशन रोड के दुकानदारों को सप्लाइ करता था. तब मेरे पास मोटरसाइकिल भी नहीं थी. छह-सात साल पहले मैट्रिक पास करके राजस्थान के अलवर जिले के छोटे से गांव तातारपुर से यहां आया था." पटना में रमेश के दो मामा रहते थे जो यहीं रेडिमेड कपड़ों का व्यापार करते थे.
अलवर जिले के तातारपुर गांव में उनके पिता श्रीराम गुप्ता की एक छोटी-सी किराने की दुकान थी, जहां दिन भर में मुश्किल से 40-50 रुपए की सेल होती थी और पांच-दस रुपए की कमाई. महीने की ढाई-तीन सौ रुपए की कमाई में उनके पिता ने उन्हें और उनके चार अन्य भाइयों को मैट्रिक तक पढ़ाया. उनके छोटे से गांव में इसके आगे पढ़ने की गुंजाइश नहीं थी. इसलिए उन्हें अपने मामा के साथ पटना आना पड़ा. यहां उन्होंने पांच से छह साल अपने दोनों मामा की दुकान में बतौर मैनेजर काम किया और फिर एक दिन वे इस रोजगार में उतर गए.
This story is from the December 13, 2023 edition of India Today Hindi.
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रील के रसिक बनते भस्म-भभूत वाले तपस्वी
कहते हैं उपनिषदों का ज्वलंत ज्ञान सबके लिए नहीं है. वजहः यह बुद्धि मात्र की यानी सिर्फ बौद्धिक उपलब्धि नहीं बल्कि शरीर पर उसके निरंतर गहन अभ्यास से आप वहां तक पहुंचते हैं. लेकिन संगम में स्नान के लिए वे विभूतियां भी आती हैं जो तमाम सांसारिक आकर्षणों से दूर हो चुकी हैं.
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दरअसल, दंडकारण्य के घने जंगलों में, जहां पत्तों की हर सरसराहट के साथ शिकार और शिकारी के बीच की सीमा रेखाएं धुंधली पड़ जाती हैं, अभी-अभी वामपंथी उग्रवाद के खिलाफ देश की लंबे वक्त से चल रही लड़ाई का एक नाटकीय अध्याय लिखा गया.
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कभी औद्योगिक शहर की पहचान रखने वाला मोकामा आखिर नब्बे के दशक में कैसे बना बिहार का क्राइम कैपिटल? अपनी बदनाम छवि से छुटकारा पाने की कोशिश कर रहा यह शहर हाल में गुटों के बीच भारी गोलीबारी से एक बार फिर दहला
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बढ़िया, संतुलित कदम
अब जब बाहरी दुनिया में अनिश्चितता दिख रही है तो 2025 के बजट में कुछ बेहद आवश्यक आश्वासन दिए गए हैं, साथ ही राजकोषीय विवेक की सीधी और संकरी राह का अनुसरण किया गया है
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विश्व का सबसे खतरनाक गेंदबाज
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किताबें, किरदार और ककड़ी
बाकी के रूटीनी मेलों से कितना अलग होता है किताबों और थिएटर के उत्सव-जलसों का मिजाज! जरूरत की या लक्जरी चीजों को खरीदने-बेचने के हड़बोंग से हटकर यहां दिखती है अपने भीतरी सॉफ्टवेयर को अपडेट करने की बेचैनी (संदर्भ: प्रगति मैदान में दिल्ली विश्व पुस्तक मेला; राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में भारंगम). थोड़ा सजग रहें तो कई गुदगुदाते वाकयों से भी आप गुजरते हैं.
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ममता पर उत्तर पड़े अखाड़े में
कभी ग्लैमरस अभिनेत्री रहीं ममता कुलकर्णी को किन्नर अखाड़े का महामंडलेश्वर बनाने के बाद शुरू हुआ बखेड़ा. अखाड़ों में बढ़ते वैभव के चलते लगा महामंडलेश्वर बनने का चस्का
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देसी स्वाद की देवी
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