भारतीय फार्मास्युटिकल उद्योग के उत्थान की कहानी ने दुनिया का उतना ध्यान नहीं खींचा होगा जितना भारत की आइटी और आउटसोर्सिंग में सफलताओं ने खींचा. पर यह भी उतनी ही आकर्षक है. जिस उद्योग पर 1947 में आजादी के वन्त विदेशी फार्मास्युटिकल कंपनियों का प्रभुत्व था, आज भारतीय दवा निर्माता इतने मजबूत हो गए हैं कि उनका घरेलू बाजार में दबदबा है और ज्यादा कीमती अमेरिकी और यूरोपीय बाजारों में भी उनकी बड़ी मौजूदगी है.
विदेशी दवा फर्मों ने पेटेंट कानूनों का इस्तेमाल करते हुए अपनी मिल्कियत वाली दवाओं को कॉपी करने से बचाया लेकिन पेटेंट अधिनियम 1970 पारित होने के साथ ही वे भारत में अपनी दवाओं का पेटेंट बरकरार नहीं रख सकती थीं. सिर्फ प्रक्रिया पेटेंटों-एक्टिव फार्मा इनग्रेडिएंट का इस्तेमाल करते हुए दवा बनाने की प्रक्रिया की अनुमति दी गई और यह एक बड़ा निर्णायक मोड़ साबित हुआ. इससे घरेलू फर्में वही उत्पाद बनाने में सक्षम हो गईं जो बहुराष्ट्रीय कंपनियां बनाती थीं लेकिन यह काम रिवर्स इंजीनियरिंग प्रक्रिया के जरिए किया गया. इसका मतलब था कि इस तरह बनाई गई दवाइयां अपने ब्रांडेड समकक्षों की दवाओं के पेटेंट का उल्लंघन नहीं करें, लेकिन उनमें वही इनग्रेडिएंट थे जो उन्हें कारगर बनाते थे.
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जब स्वच्छता बन गया एक आंदोलन
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