सबसे पहले तो बात यहीं से शुरू होनी चाहिए कि आखिर एक स्त्री को विवाह के बाहर जाकर संबंध बनाने की आजादी क्यों नहीं हो। हर रोक स्त्री के लिए ही क्यों ? यह नारीवादी प्रश्न नहीं है, यह प्रश्न तो मनुष्यता का प्रश्न है। स्त्री विधवा हो जाए तो उसके लिए सब कुछ वर्जित हो जाता है। बाहर जाना वर्जित, शृंगार वर्जित, हंसना वर्जित । मानो किसी व्यक्ति के मर जाने से उसकी सारी प्राकृतिक जरूरतें भी मर जाती हैं। क्या ऐसा होता है ? वह किसी से संबंध नहीं बना सकती। यदि चोरी-छुपे बन भी जाए और संबंध से गर्भ ठहर जाए, तो निश्चित तौर पर वह मार दी जाएगी। परिवार की इज्जत का सवाल जो है। विवाहेतर संबंधों की बहस यहीं से शुरू की जानी चाहिए। यानी मनुष्य होकर सोचने की प्राकृतिक जरूरतों से । मेरा बचपन गांव में बीता। वहां मैंने देखा है बच्चियों के लिए अलग नियम, कुंआरी लड़की के लिए अलग, शादीशुदा के लिए अलग और विधवाओं के लिए अलग। यानी उम्र के हर पड़ाव पर नियम सिर्फ स्त्री के लिए हैं। फिर भी यह तो प्रेम है, जो कहीं भी अंकुरित हो जाता है। जब प्रेम पशुओं में होता है, तो मनुष्यों में क्यों नहीं होगा? स्त्री मनुष्य है, तो उसे भी प्रेम हो जाता है। शादी हो जाने के बाद प्रेम कहीं गुम नहीं जाता। समाज में स्त्री का दर्जा हमेशा नीचा रखा गया क्योंकि पुरुषों ने यह व्यवस्था बनाई। समाज मनुष्यता की इच्छाओं पर बंदिश लगा देता है। क्यों ? क्योंकि समाज स्त्री के मुखर होने से डरता है। इसीलिए विवाह के बाद बनने वाली स्त्री के लिए कई संबोधन हैं, मगर पुरुष के लिए कोई नहीं।
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