बांग्लादेश में शेख हसीना के इस्तीफे और देश छोड़ कर भागने से पैदा हुए घटनाक्रम में ऐसा लगता है कि भारत सरकार अपने गलत आकलन के चक्कर में फंस चुकी है। दक्षिण एशिया में शेख हसीना दिल्ली में बैठी सरकार की सबसे करीबी नेताओं में मानी जाती हैं। ऐसा लगता है कि दिल्ली की सत्ता ने पूरे प्रसंग को ही गलत ढंग से ले लिया।
शायद भारत सरकार को हसीना पर पूरा भरोसा था कि वे अपने परिचित दमनकारी तरीकों से छात्रों के आंदोलन को कुचल देंगी। इसका एक आधार भी था। आखिरकार उन्होंने जमात की रीढ़ को पूरी तरह तोड़ कर विपक्षी दल बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) को तकरीबन अप्रासंगिक बना दिया था। उनके राज में बीएनपी के ज्यादातर नेता जेल भेज दिए गए, जिनमें बुजुर्ग और बीमार पूर्व प्रधानमंत्री बेगम खालिदा जिया भी हैं। बिना किसी विश्वसनीय विपक्ष के दशकों से राज कर रहीं हसीना और उनकी पार्टी इस प्रक्रिया में बहुत असहिष्णु हो चली थीं। उन्हें अपनी आलोचना बिलकुल बरदाश्त नहीं थी।
यह सच है कि वे जनतांत्रिक ढंग से चुनी गईं नेता हैं, लेकिन उनके आलोचकों ने अकसर उनके ऊपर स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव न करवाने के आरोप लगाए हैं। बीएनपी ने तो चुनाव का बहिष्कार यह कहते हुए कर दिया था कि बिना किसी अंतरिम व्यवस्था के चुनाव करवाए गए तो वे कभी भी स्वतंत्र और निष्पक्ष नहीं होंगे।
बांग्लादेश में पिछले कुछ हफ्तों से जो कुछ चल रहा था उस पर दिल्ली की पैनी नजर रही होगी। सवाल उठता है कि क्या किसी को भी अंदाजा नहीं लगा कि हालात कितने गंभीर हो जा सकते हैं? क्या भारत शेख हसीना को चेता नहीं सकता था कि वे छात्रों के आंदोलन को गंभीरता से लें और संकट को खत्म करने की कोशिश करें ? हो सकता है कि ऐसी सलाह दी भी गई हो लेकिन उधर से इसे माना न गया हो। यह भी संभव है कि ऐसा न हुआ हो क्योंकि भारत के विदेश मंत्रालय ने संकट की शुरुआत में ही इसे बांग्लादेश की सरकार का आंतरिक मामला करार दिया था और इस पर कोई भी टिप्पणी करने से इनकार कर दिया था।
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