अचंभा !!, आश्चर्यजनक, अभूतपूर्व जैसी तमाम अभिव्यक्तियां या दांतों तले उंगली जैसे तमाम मुहावरे हांफने लगें, तो महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव, अ 2024 के नतीजों को याद कर लीजिए। इन नतीजों ने सिर खुजाने, माथे पर उंगलियां फिराने, चेहरे पर हैरान-परेशान भाव लाने के लिए बड़े-बड़े चुनाव पंडितों को ही मजबूर नहीं कर दिया, जीतने वालों की जुबान भी जवाब देने लगी। नतीजों की शाम मुंबई में पत्रकार-वार्ता में सत्तारूढ़ महायुति के मुख्यमंत्री (अब पूर्व) एकनाथ शिंदे के मुंह से "न भूतो न भविष्यति” ही निकला। उनके साथ बैठे तब के उप-मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस बस मुस्कराते रहे, लेकिन दूसरे उप-मुख्यमंत्री अजित पवार कुछ औचक अंदाज में बोल उठे, “कल शाम तक के अनुमानों में, हम तीनों कहीं भी दौड़ में नहीं थे। हमें लगा कि हम पीछे रह जाएंगे। 229 सीटों (तब तक जीत का आंकड़ा) पर कामयाबी अप्रत्याशित थी। हमारा अनुमान महायुति को लगभग 170 सीटें तक मिलने की थी।" जीत इस कदर चौंकाऊ थी कि 23 नवंबर को नतीजों के बाद 3 दिसंबर तक महायुति नेता या मुख्यमंत्री का चुनाव या चयन नहीं कर पाई। अलबत्ता, 26 नवंबर को ही विधानसभा खत्म हो गई, लेकिन कोई संवैधानिक संकट खड़ा नहीं हुआ ! कोई चर्चा तक नहीं! यह भी विरली, अप्रत्याशित घटना ही है। तो, महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव नतीजे जैसे अप्रत्याशितों का पुंज हैं।
इन अप्रत्याशित सूत्रों को कुछ हद तक खोलने के पहले नतीजों पर गौर करें तय था कि महाराष्ट्र में महाभारत होना है, जिसका असर देश की सियासत पर भी होना ही था। लेकिन हवा तो यही थी कि सत्तारूढ़ महायुति पर विपक्षी महा विकास अघाड़ी (एमवीए) भारी है। महज छह महीने पहले लोकसभा चुनाव में एमवीए या इंडिया ब्लॉक को महाराष्ट्र की कुल 48 सीटों में से 31 पर जीत मिली थी और महायुति या एनडीए .86 फीसदी वोटों से पीछे रहकर 17 सीटों पर सिमट गया था। इसलिए विपक्ष को भारी बढ़त की व्यापक संभावनाएं जताई जा रही थीं। अलबत्ता, संसदीय चुनावों के बाद महायुति की एकनाथ शिंदे सरकार की कई कल्याण योजनाओं की बनिस्बत कुछ माहौल बदला बताया जा रहा था। यानी लगभग तय था कि मुकाबला कांटे का होगा।
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बालमन के गांधी
ऐसे दौर में जब गांधी की राजनीति, अर्थनीति, समाजनीति, सर्व धर्म समभाव सबसे देश काफी दूर जा चुका है, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का रंग-ढंग बदलता जा रहा है, समूचे इतिहास की तरह स्वतंत्रता संग्राम के पाठ में नई इबारत लिखी जा रही है, गांधी के छोटे-छोटे किस्सों को बच्चों के मन में उतारने की कोशिश वाकई मार्के की है। नौंवी कक्षा की छात्रा रेवा की 'बापू की डगर' समकालीन भारत में विरली कही जा सकती है।
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वंशी माहेश्वरी भारतीय और विश्व कविता की हिंदी अनुवाद की पत्रिका तनाव लगभग पचास वर्षों से निकालते रहे हैं। सक्षम कवि ने अपने कवि रूप को पीछे रखा और बिना किसी प्रचार-प्रसार के निरंतर काव्य- सजून करते रहे हैं।
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