इंटरनैशनल होता सावन का रोमांटिक महीना 200 रुपए किलो के टमाटरों को न खरीद पाने की बेबसी और कसमसाहट में जैसेतैसे कट भी जाता, लेकिन मणिपुर की हिंसा और एक महिला को नग्न करते वायरल हुए वीडियो को देख कर तो हर किसी को लगा कि इतनी नफरत क्यों? यह आई कहां से और इस का इलाज क्या है? दिनरात अपने धर्म और संस्कृति की दुहाई देते रहने वालों की यह कहने की हिम्मत नहीं पड़ी कि यही तो हमारे संस्कार और परंपरा हैं. कभी ऐसा हस्तिनापुर में हुआ में इं था, आज मणिपुर में हो गया तो कहां का पहाड़ टूट पड़ा.
लोग जरूरत से ज्यादा दुखी न हों, इसलिए मुहब्बत का संदेश लिए पाकिस्तान से सीमा आ गई. बस, फिर क्या था, आवाम को एक काम मिल गया और सचमुच में वे टमाटर और मणिपुर भूलभाल कर अपनी नई भौजाई से हंसीमजाक करने में मसरूफ हो गए.
मीडिया वालों को बैठेबिठाए एक खुदीखुदाई स्टोरी मिल गई और हिंदूमुसलिम करते कट्टरवादियों के भी मुंह बंद हो गए. किसी ने नहीं कहा कि यह 'हिंदू लव जिहाद' है.
सीमा हैदर के सीमा सचिन होते ही माहौल रातोंरात बदल गया. सीमा ने भी किसी को निराश नहीं किया. 'मेरा गांव मेरा देश' फिल्म के गाने 'हाय शरमाऊं, किसकिस को बताऊं मैं अपनी प्रेम कहानियां...' सरीखा कोई गाना गाने के बजाय उस ने अपनी लव स्टोरी उधेड़ कर रख दी. उस की कहानी और जज्बातों को अगर गद्य से पद्य में तबदील करें तो अलगअलग फिल्म का यह गाना उभर कर आता है, 'दिल में आग लगाए सावन का महीना, नहीं जीना नहीं जीना तेरे बिन नहीं जीना...'
सावन के गीत, विरह और मिलन दोनों हिंदी साहित्यकारों के प्रिय विषय रहे हैं. लेकिन अब दौर जब पत्नियां सावन में मायके जाती थीं और उन के मायके पहुंचते ही और कई बार तो पहुंचने के पहले ही पति की चिट्ठी पहुंच जाती थी कि प्रिय, तुम्हारी याद सताती है, जल्द आ जाओ. अब मुझ से रहा नहीं जा रहा वगैरह.
कामकाजी और नौकरीपेशा पत्नियों के पति तो विरहाग्नि नाम के इस सुख से परिचित ही नहीं. सचिन धन्य है, भाग्यशाली है जो सीमा से उस का विरह बरदाश्त नहीं हुआ और वह धर्म, जाति और सरहदों सहित तमाम सीमाएं तोड़ कर आ गई.
यह और बात है कि सावन परंपरा का पालन करते हुए वह मायके नहीं गई, बल्कि सीधे वाया नेपाल अपनी नई ससुराल भारत आई.
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