करीब 25 साल पहले भारत का दवा उद्योग कहां था और अब वह कितना आगे निकल चुका है, यह समझने के लिए हमें 1970 के दशक में वापस जाना होगा जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को वैज्ञानिक यूसुफ हामिद का एक संदेश मिला था। हामिद अब प्रमुख औषधि कंपनी सिप्ला के गैर-कार्यकारी अध्यक्ष हैं। उन्होंने पूछा था कि क्या भारतीयों को जीवनरक्षक दवा (हृदय रोग की दवा प्रोप्रानोलोल) से वंचित रहने देना चाहिए क्योंकि उसके आविष्कारक को हमारी त्वचा का रंग पसंद नहीं है?
उसके बाद जो हुआ वह आज भारत की कॉरपोरेट गाथा का हिस्सा है। देश में पेटेंट कानून को रातोंरात बदल दिया गया। इससे हामिद जैसे भारतीय औषधि उद्योग के अग्रदूतों को विनिर्माण प्रक्रियाओं में मामूली संशोधन करने और पेटेंट वाली दवाओं के जेनेरिक दवा तैयार करने की अनुमति मिल गई। नए कानून में ऐसा प्रावधान किया गया कि कंपनियां केवल उत्पाद बनाने की प्रक्रिया का ही पेटेंट करा सकती हैं, उत्पाद का नहीं। साथ ही पेटेंट के तहत विशेष सुरक्षा अवधि केवल 7 वर्षों तक ही जारी रहेगी।
कई साल बाद भारत बौद्धिक संपदा अधिकारों के व्यापार संबंधी पहलुओं पर समझौते का हस्ताक्षरकर्ता देश बन गया। यह समझौता 1 जनवरी, 1995 से प्रभावी हुआ था। विश्व व्यापार संगठन के सभी सदस्य देशों पर यह समझौता लागू होता है।
भारत ने कुछ समय बाद इस समझौते पर अमल करने के लिए अपने पेटेंट कानूनों में संशोधन किया। इससे दवाओं के लिए का उत्पाद पेटेंट की शुरुआत हुई। इससे आविष्कारकों को विनिर्माण प्रक्रिया की परवाह किए बिना 20 वर्षों के लिए विशेष अधिकार प्रदान किए। मगर इस समझौते के बाद पिछले 25 वर्षों के दौरान अनुसंधान एवं विकास (आरऐंडडी) पर भारतीय औषधि कंपनियों के निवेश में जबरदस्त वृद्धि हुई है। इस प्रकार भारतीय औषधि कंपनियां वैश्विक औषधि मूल्य श्रृंखला का महत्त्वपूर्ण हिस्सा बन गईं।
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