लोकसभा चुनाव के मतदान की घड़ी नजदीक आ गई है। पक्ष-विपक्ष दोनों की ओर से मैदान में पहले चरण से ही बढ़त बनाने की जोर-आजमाइश शुरू हो चुकी है। अगले लगभग 50 दिनों में समय के साथ कई नए मुद्दे भी उभरेंगे और चुनाव का रंग रूप भी बदलता दिखेगा, पर एक पहलू यह भी है कि राजनीतिक दल लगभग आधी लड़ाई शुरू होने से पहले ही लड़ लेते हैं पर्दे के पीछे चुनाव की औपचारिक घोषणा से लगभग दो-ढाई महीने पहले हर दल अपनी व्यूहरचना तैयार करने में जुट जाता है, जोकि मैदानी जंग का मुख्य आधार होता है। इसमें सीटवार सर्वे और उम्मीदवार तय करने से लेकर दूसरे खेमे के मजबूत पहलवान तोड़ने से लेकर वोटर को प्रभावित करने के लिए सही मुहरों की पहचान (घोषणा-पत्र) तक कई विषय तय किए जाते हैं। वस्तुतः दो-ढाई महीने का वह काल होता है, जब राजनीतिक दल अखाड़े में उतरने से पहले अपनी कसरत करते हैं। जिसकी जितनी कसरत, वह उतना फिट। उसके बाद जरूरत होती है। यह सुनिश्चित करने की कि अखाड़े में पैर न फिसले, जिसे राजनीति में जुबान न फिसलना कहना ज्यादा उचित होगा।
प्रसिद्ध कहावत है - युद्ध मेज पर जीते जाते हैं, यानी किसी भी लड़ाई के लिए रणनीति सबसे अहम होती है चुनावी जंग इससे बहुत अलग नहीं है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में राजग के 400 पार के नारे के साथ राजनीतिक विमर्श ऐसे मोड़ पर है, जहां चर्चा जीत और हार की नहीं, बल्कि इस बात की हो रही है कि सचमुच पार या उससे पीछे यानी चित में जीता पट तुम हारे। यह भाजपा की रणनीति का अहम हिस्सा है, जिसने जंग का माहौल तैयार किया। जवाब में आम आदमी पार्टी (आप) संग कांग्रेस व विपक्षी दलों ने संविधान को खतरे में बताकर मतदाताओं के बीच बहस छेड़ने की कोशिश की है, लेकिन 400 पार के नारे को टक्कर देने लायक कोई ऐसा नारा तैयार नहीं किया जा सका है, जो जुबान पर चढ़ सके।
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