रात के 10 बज चुके थे. रोजाना की तरह प्रदीप पत्नी ज्योति का इंतजार कर रहा था. बच्चे उस का इंतजार कर सो चुके थे. वैसे तो वह अकसर शाम का अंधेरा घिरते ही लखनऊ के धनवारा भसंडा गांव स्थित अपने घर आ जाती थी. हालांकि कई बार उसे थोड़ी देर भी हो जाती थी, किंतु उस रोज कुछ ज्यादा ही देर हो गई थी.
प्रदीप ने कई बार फोन किया था. लेकिन वह बारबार काल डिसकनेक्ट कर देती थी. फिर फोन पर 'पहुंच से बाहर' होने का संदेश मिलता था.
घर के दरवाजे पर नजर टिकाए गुमसुम प्रदीप ने अपनी 9 वर्षीया बेटी और 7 वर्षीय बेटे को खाना खिला कर सोने के लिए कमरे में भेज दिया था. सब से छोटा वाला बेटा तो काफी पहले ही सो गया था. जैसेजैसे रात गहराने लगी थी और गलियों में सन्नाटा पसरने लगा था, वैसेवैसे उस की बेचैनी बढ़ती जा रही थी.
खैर! इंतजार खत्म हुआ. दरवाजे की कुंडी बजी. और बाहर से किवाड़ पर लात मारने की आवाज भी आई. वह तेज कदमों से दरवाजे की ओर बढ़ा, तब तक किवाड़ एक झटके से खुल चुके थे.
दरअसल, दरवाजे की भीतरी चिटकनी नहीं लगी थी. लड़खड़ाती ज्योति 2-3 कदम ही बढ़ पाई थी कि प्रदीप ने उसे गिरने से पहले पकड़ लिया.
उस के पीछे जोगेंद्र सिंह चौहान भी खड़ा था. घर में घुसते ही जोगेंद्र ने ताना देते हुए प्रदीप से कहा, "ले भई, संभाल अपनी बीवी को. जब बीवी तुम से संभलती नहीं है, तुम्हारा कहना नहीं मानती है, तब तुम उस से पीछा क्यों नहीं छुड़ा लेते हो?"
ज्योति को पकड़े हुए प्रदीप ने इस पर कोई जवाब नहीं दिया. सिर्फ उसे गुस्साई नजरों से देखता रहा.
'हांहां, इस से नाता तोड़ कर अपना अलग ही घर बसा लो." जोगेंद्र बोला.
"अरे जोगेंद्र, ये मुझे क्या छोड़ेगा. देखना, एक दिन मैं ही इस से नाता तोड़ कर तुम्हारे साथ घर बसाऊंगी." लड़खड़ाती आवाज में ज्योति बोली.
प्रदीप चुप बना रहा. दोनों की उलटीसीधी बातें सुनता रहा.
ज्योति शराब के नशे में धुत थी. जोगेंद्र भी नशे में था. ज्योति प्रदीप का हाथ छुड़ाते हुए लड़खड़ाती आवाज में बोली, “तुम इतना फोन क्यों कर रहे थे ? नाक में दम कर रखा था. तुम्हें कितनी बार मना किया है कि जब मैं कंपनी के काम से घर से बाहर रहूं तब बारबार फोन कर मुझे डिस्टर्ब मत किया करो. लेकिन तुम हो कि..."
Bu hikaye Manohar Kahaniyan dergisinin January 2023 sayısından alınmıştır.
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