गाबड़ी में बैठते ही पूर्वी ने कार की खिड़कियां खोल दीं, हवा के तेज झोंके से बालों की गिरहें खुलने लगीं और शायद पूर्वी के मन की भी... महिमा मयंक की सिर्फ पत्नी नहीं थी, उसकी बहू भी थी। मयंक उसकी इकलौती संतान थी, हर मां की तरह अपने बेटे के लिए उसके भी कुछ अरमान थे पर... मयंक ने पूर्वी को उसके लिए बहू ढूंढ़ने का मौका तक नहीं दिया। इस बात के लिए कहीं ना कहीं वे महिमा को ही दोषी मानती थीं, "महिमा ने ही उसे अपने रूप जाल में फंसा लिया होगा, मेरा मयंक तो गऊ है । "
मयंक और महिमा के प्यार की डगर भी कहां आसान थी। मयंक की बेरोजगारी और दोनों परिवार की असहमति, कुछ भी तो नहीं था उनके पास... था तो बस एक-दूसरे पर विश्वास । वह दिन था और आज का दिन... कार के आगे की सीट पर मयंक और महिमा बैठे हुए थे। प्रखर ने जबर्दस्ती उसे मयंक के साथ आगे बैठा दिया था।
"मयंक ! आज तुम गाड़ी चलाओ, मैं पीछे आराम से तुम्हारी मम्मी के साथ बैटूंगा।"
महिमा की आंखों में संकोच उभर आया, पर प्रखर की जिद के आगे उसकी एक ना चली। शादी के बाद उसका रंग कितना निखर आया था। लाल साड़ी में सिमटी महिमा की काया उसके गोरे रंग में घुल-मिल गयी थी। मयंक की आंखों और चेहरे के भावों से महिमा के लिए प्यार बार-बार छलक आता था।
पूर्वी का मायका बगलवाले शहर में ही था, मुश्किल से डेढ़ घंटे का रास्ता था। पूर्वी की मां का स्वास्थ्य कुछ दिनों से ठीक नहीं चल रहा था। वे बार-बार मयंक और महिमा को देखने की जिद कर रही थीं। प्रखर को तो ससुराल जाने का बहाना चाहिए होता था। एक हफ्ते पहले उन्होंने फरमान जारी कर दिया, “अगले हफ्ते शनिवार और रविवार को छुट्टी है। सुबह ही निकल जाएंगे और दो दिन रह कर वापस आ जाएंगे। महिमा को आसपास घुमा भी देंगे, इसका शादी के बाद घर से बाहर निकलना ही नहीं हुआ।"
पूर्वी कुछ कहना चाहती थीं, पर शब्द मौन हो गए थे। वे उन परछाइयों से जितना दूर भागतीं, वे उतना ही उनसे चिपक जाते थे।
वे लोग बड़े सवेरे ही निकल लिए थे। मौसम खुशगवार था, हल्की-हल्की धूप निकल आयी थी। प्रखर बड़े उत्साह से रास्ते में पड़नेवाली चीजों को महिमा को दिखा रहे थे।
"मयंक, आगे मोड़ पर गाड़ी रोकना ।"
"क्या हुआ पापा?"
Bu hikaye Vanitha Hindi dergisinin April 2023 sayısından alınmıştır.
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