उत्तर-उदारीकरण के आन्दोलन
Samay Patrika|January 2023
"भूमण्डलीकरण के साथ आये सामाजिक बदलाव ने जनआन्दोलनों की प्रवृत्ति और आवृत्ति दोनों पर असर डाला। यह उदारवाद श्रम शक्तियों के लिए बड़ा ही कठोर साबित हुआ। इसने मज़दूर और श्रमिक की बात करने वाले आन्दोलनों को ख़त्म कर दिया।" - अकु श्रीवास्तव, उत्तर-उदारीकरण के आन्दोलन
अकु श्रीवास्तव
उत्तर-उदारीकरण के आन्दोलन

पिछली सदी के 90 के दशक में उदारवाद और भूमण्डलीकरण के सूत्रपात के साथ समाज में बड़े आर्थिक बदलाव आये। विकास की इस नयी बयार ने बड़ी संख्या में लोगों की उन मूलभूत चिन्ताओं रोटी, कपड़ा और मकान से उबारा जो सदियों से चली आ रही थी। भारत में भी हरित क्रान्ति से पहले देश की क़रीब 70 फ़ीसदी आबादी की पहली चिन्ता रोटी थी। ग्लोबलाइजेशन और वैश्वीकरण ने दुनिया की दिग्गज मल्टीनेशनल कम्पनियों के लिए भारत के दरवाज़े खोल दिये गये। ये कम्पनियाँ निवेश लेकर आयीं। आधारभूत ढाँचे में सुधार हुआ। बड़े पैमाने पर रोज़गार के नये अवसर सृजित हुए। रोटी और कपड़े की चिन्ता दूर होने से सरोकार भी बदले। समाज में चर्चा का विषय ग़रीब और ग़रीबी की जगह उपभोक्तावाद हो गया। जूते, कपड़ों की नहीं उनके ब्रांड की बात होने लगी। रोटी का मतलब भी सिर्फ़ रोटी नहीं रह गया। पिज्जा, बर्गर, नूडल्स और कॉन्टिनेंटल खाने तक अब निम्न मध्यमवर्ग की पहुँच हो गयी थी। जब इस वैश्वीकरण के इतने लाभ थे तो फिर इसे विफल कैसे कहा जा सकता है? अगर यह विफल नहीं है तो समाज में नये तरह के तनाव क्यों पैदा हो रहे हैं? समाज में कुछ वर्गों का रह-रहकर आन्दोलित हो उठना, क्या नये वर्ग संघर्ष का प्रतीक नहीं है? क्या यह संघर्ष भूमण्डलीकरण की विफलता का प्रतीक नहीं है? भूमण्डलीकरण की विफलता ने समाज में नये तनाव कैसे पैदा किये?

Bu hikaye Samay Patrika dergisinin January 2023 sayısından alınmıştır.

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इज़रायल-फ़िलिस्तीन संघर्ष और उसकी जटिल सामाजिक-मानवीय परिणतियों का गहन अध्ययन
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यह पुस्तक इज़रायल-फ़िलिस्तीन संघर्ष और उसकी जटिल सामाजिक-मानवीय परिणतियों का गहन अध्ययन प्रस्तुत करती है। इसमें कहानियों, कविताओं, साहित्यिक-राजनीतिक लेखों, साक्षात्कारों और टिप्पणियों का संग्रह है जो इस संघर्ष के विभिन्न पहलुओं को उजागर करते हैं।

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