होली तथा पिचकारी एक दूसरे के पर्याय हैं। होली का नाम आते ही पिचकारी पहले याद आती है जैसे होली का समस्त लुत्फ पिचकारी से ही जुड़ा है। होली में स्नेह तथा प्यार के सौहार्दपूर्ण रंग बिखेरने के लिए प्राचीन काल से पिचकारियों का प्रयोग होता रहा है।
पौराणिक काल की चर्चा करें तो कृष्ण और गोपियों के मध्य होली खेलने के दृष्टांतों में पिचकारी का प्रयोग अच्छी तरह से दर्शाया गया है। अन्य किसी पात्र की अपेक्षा पिचकारी से रंग डालने का भाव निराला है।
पिचकारी का महत्त्व
पिचकारियों का एक स्वर्णिम इतिहास रहा है। हालांकि समय के साथ पिचकारी का आकार प्रकार तथा बनाने के तौर तरीके बदलते रहे, लेकिन इसके नाम तथा कार्य में कोई बदलाव नहीं आया। अतीत से अब तक प्रत्येक होली के अवसर पर पिचकारी स्नेह और प्रेम के रंगों से लोगों को संघटित करती रही है। इतिहास के पन्नों का अवलोकन करने से यह बात जाहिर होती है कि पहले पिचकारी व्यक्ति की सामाजिक हैसियत तथा उसकी सम्पन्नता को प्रदर्शित करती थी। तब लोग पिचकारी को बाजारू मोल से न करके सामर्थ्य के मुताबिक कुशल कारीगरों से बनवाते थे। उन्हें बनवाने में कई दिन तथा काफी धन लगता था। अपने प्रियजनों से होली खेलने के लिए विशेष प्रकार की कलात्मकता से ओत-प्रोत पिचकारियों का निर्माण कराया जाता था।
जल क्रीड़ा का वर्णन शास्त्रों में भी
Bu hikaye Sadhana Path dergisinin March 2023 sayısından alınmıştır.
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