
एक भला-पूरा भाषायी संपन्न मध्यमवर्गीय परिवार था। भाषा ज्ञान ही इस परिवार की कुल जमापूंजी थी। यहां किसी आगंतुक को पानी देते हुए 'लीजिए जल पीजिए' कहा जाता था। इतना आदर और सम्मान पाकर मेहमान के मन के साथ भाषा का सौंदर्य भी निखर उठता था। पंखे को फैन समझने वाली नई पीढ़ी के दौर में इस घर में इतनी शुद्ध भाषा का उपयोग किसी कल्पना की तरह ही लगता है। यहां संस्कार, संस्कृति और सभ्यता के ट्रिपल एस वाले माहौल में गुजर-बसर हो रही थी। बच्चों में लेखन, पाठन के प्रति रुचि थी। आपसी विवाद भी पहले किताब पढ़ने की होड़ के ही होते थे। जिज्ञासाओं के हल के लिए निर्भरता भी इन्हीं किताबों पर थी। पहले के ज़माने के लोगों को असभ्य और अशिक्षित कहा जाता था, लेकिन तब उनके पास भाषा थी। आज के दौर के लोग सभ्य और शिक्षित हैं, लेकिन अब वे अपनी भाषा खो चुके हैं।
Bu hikaye Aha Zindagi dergisinin November 2024 sayısından alınmıştır.
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वन के दम पर हैं हम
भौतिक विकास के रथ पर सवार मानव स्वयं को भले ही सर्वशक्तिमान और सर्वसमर्थ समझ ले, किंतु उसका जीवन विभिन्न जीव-जंतुओं से लेकर मौसम और जल जैसे प्रकृति के आधारभूत तत्वों पर आश्रित है।

दिखता नहीं, वह भी बह जाता है!
जब भी पानी की बर्बादी की बात होती है तो अक्सर लोग नल से बहते पानी, प्रदूषित होते जलस्रोत या भूजल के अंधाधुंध दोहन की ओर इशारा करते हैं।

वन का हर घर मंदिर
जनजाति समाज घर की ड्योढ़ी को भी देवी स्वरूप मानता है। चौखट और डांडे में देवता देखता है। यहां तक कि घर के बाहर प्रांगण में लगी किवाडी पर भी देवता का वास माना जाता है।

ताक-ताक की बात है
पहले घरों में ताक होते थे जहां ज़रूरी वस्तुएं रखी जाती थीं। अब सपाट दीवारें हैं और हम ताक में रहने लगे हैं।

किताबें पढ़ने वाली हीरोइन.
बॉलीवुड में उनका प्रवेश मानो फूलों की राह पर चलकर हुआ। उनकी शुरुआती दो फिल्मों- कहो ना प्यार है और ग़दर-ने इतिहास रच दिया। बाद में भी कई अच्छी फिल्मों से उनका नाम जुड़ा।

फ़ायदे के रस से भरे नींबू
रायबरेली के 'लेमन मैन' आनंद मिश्रा को कौन नहीं जानता! अच्छी आय की नौकरी को छोड़कर वे पैतृक गांव में लौटे और दो एकड़ कृषि भूमि पर नींबू की खेती करके राष्ट्रीय पहचान बनाई। प्रस्तुत है, उनकी कहानी, उन्हीं की जुबानी।

जहां देखो वहां आसन
योगासन शरीर को तोड़ना-मरोड़ना नहीं है, बल्कि ये प्रकृति की सहज गतियां और स्थितियां हैं। आस-पास नज़रें दौड़ाकर देखने से पता लगेगा कि सभी आसन जीव-जंतुओं और वनस्पतियों से ही प्रेरित हैं, चाहे वो जंगल का राजा हो, फूलों पर मंडराने वाली तितली या ताड़ का पेड़।

बांटने में ही आनंद है
दुनिया में लोग सामान्यत: लेने खड़े हैं, कुछ तो छीनने भी । दान तो देने का भाव है, वह कैसे आएगा! इसलिए दान के नाम पर सौदेबाज़ी होती है, फ़ायदा ढूंढा जाता है। इसके ठीक उलट, वास्तविक दान होता है स्वांतः सुखाय- जिसमें देने वाले की आत्मा प्रसन्न होती है।
बहानेबाज़ी भी एक कला है!
कई बार कितनी भी कोशिश कर लो, ऑफिस पहुंचने में देर हो ही जाती है, ऐसे में कुछ लोग मासूम-सी शक्ल बना लेते हैं तो कुछ लोग आत्मविश्वास के साथ कुछ बहाना पेश करते हैं। और बहाने भी ऐसे कि हंसी छूट जाए। बात इन्हीं बहानेबाज़ लोगों की हो रही है।

बहानेबाज़ी भी एक कला है!
कई बार कितनी भी कोशिश कर लो, ऑफिस पहुंचने में देर हो ही जाती है, ऐसे में कुछ लोग मासूम-सी शक्ल बना लेते हैं तो कुछ लोग आत्मविश्वास के साथ कुछ बहाना पेश करते हैं। और बहाने भी ऐसे कि हंसी छूट जाए। बात इन्हीं बहानेबाज़ लोगों की हो रही है।