वे नब्बे के दशक में उन्हीं की छात्रा रहीं अभिनेत्री अनुराधा मजूमदार हैं जो आजकल रोहतक की लखमीचंद स्टेट युनिवर्सिटी ऑफ परफॉर्मिंग आर्ट्स में पढ़ाती हैं. बजाज का नाटक (अंधा युग) देखने आई हैं. वे रहने के ठौर की फिक्र करने लगते हैं. "अब मैं बड़ी हो गई हूं. कर लूंगी इंतजाम." उन्हें आश्वस्त कर अनुराधा बाकी लोगों से थोड़ा भावुक शब्दों में कहती हैं: "अभी भी चिंता नहीं गई. कहां रहेगी, क्या खाएगी!" इसी एनएसडी में साठेक साल पहले पढ़ने आए बजाज, सभी के बज्जू भाई, संभ्रांत माहौल देखकर तब के निदेशक इब्राहिम अल्काजी से बोल पड़े थे, "यहां पर आप लोग तो सब बातचीत अंग्रेजिए में करते हैं तो हम यहां रहके क्या करेंगे? चले जाएंगे." वही बज्जू भाई 1995-2001 तक यहां के निदेशक रहे. उन्हें मंच की युवा प्रतिभाओं की पहचान करने और उनमें कविता पढ़ने-समझने की संवेदना जगाने के लिए भी जाना गया. हिंदी के कई मौलिक नाटकों ने उन्हीं की वजह से मंच की रोशनी देखी. नपुंसकता पर केंद्रित सुरेंद्र वर्मा के नाटक सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक को उन्होंने एनएसडी रंगमंडल के बेचने के लिए रख दिए गए कचरे के ढेर से निकालकर खेला था. रंगमंडल के कलाकारों के साथ इसी 26-29 मार्च के बीच धर्मवीर भारती का क्लासिक अंधा युग उनके निर्देशन में खेला. "... यह कथा उन्हीं अंधों की है/या कथा ज्योति की है/अंधों के माध्यम से." रिहर्सल में मंगलाचरण की इन पंक्तियों के दौरान वे पीछे मुड़ते हैं और कहते हैं: "भारती जी को ज्ञानपीठ मिलना चाहिए था... उनके साथ न्याय नहीं हुआ." बज्जू भाई से एसोसिएट एडिटर शिवकेश की खास बातचीत:
प्र. बज्जू भाई, अंधा युग हिंदी का साठ साल पुराना क्लासिक है. हर दौर में वह अलग-अलग ढंग से मौजूं रहता आया है. आप इसको आज के समय से किस तरह से जोड़ रहे हैं?
Bu hikaye India Today Hindi dergisinin April 12, 2023 sayısından alınmıştır.
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