लोग अक्सर हैरान होते हैं कि एक बार लिखे जाने के बाद इतिहास पत्थर में ढला क्यों नहीं होता - उसमें संशोधन क्यों करना पड़ता है. मगर इतिहास के दार्शनिकों ने इसे हमेशा गतिशील प्रक्रिया के रूप में समझा है. मसलन आर. जी. कलिंगवुड ने द आइडिया ऑफ हिस्ट्री में ये शब्द लिखे: "हर युग को अपनी मनःस्थितियों की रोशनी में अतीत की पुनव्यर्याख्या करनी चाहिए."
मार्क्सवादी इतिहास लेखन और इतिहास के साथ उसका रिश्ता हर युग के इतिहासकारों को स्वाभाविक रूप से मिलने वाली व्याख्या की इस छूट या गुंजाइश से कहीं ज्यादा अनोखा है. 1960 के दशक से ही भारत में पाठ्य पुस्तकें रोमिला थापर, आर. एस. शर्मा, इरफान हबीब, सतीश चंद्रा, बिपन चंद्रा वगैरह वामपंथी इतिहासकारों ने लिखीं. इनमें से ज्यादातर किसी न किसी कम्यूनिस्ट पार्टी के कार्ड धारक थे. मार्क्स और उनके अनुयायियों यानी मार्क्सवादी इतिहासकारों के लिए इतिहास का प्रश्न महज यह समझना नहीं है कि 'क्या हुआ', 'कैसे हुआ' और 'यह क्यों हुआ'. उनके लिए प्रश्न यह है कि इतिहास का इस्तेमाल करके 'दुनिया कैसे बदलें'. मार्क्सवादी इतिहासकार यह समझने में नाकाम रहे कि हम जिस समाज में रहते हैं, वह जटिल ऐतिहासिक प्रक्रिया के जरिए विकसित हुआ है, जो दासता के बाद सामंतवाद के उदय और बुर्जुआ तबके के हाथों सामंती कुलीनतंत्र को उखाड़ फेंकने के मार्क्सवादी फॉर्मूले से बहुत अलग है. फिर हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि दुनिया भर में औपनिवेशवाद के अनुभव ने दिखाया है कि ज्यादा ताकतवर संस्कृति जो यथार्थ को पराधीन संस्कृति से बहुत अलग तरीकों से परिभाषित करती है, उनका दबदबा या तो पूरी तरह नष्ट कर देती है या कम से कम इतना तो करता ही है कि कम ताकतवर संस्कृतियों को की भूमिका में धकेल देती है. सांस्कृतिक तौर पर जिसे 'वैध' माना जाता था, उसे 'अवैध' बना देती है, और राजनैतिक तौर पर कमजोर संस्कृतियों को नई संहिता की बाध्यताओं के भीतर फिट होने के लिए अपने यथार्थ को किसी न किसी तरह रूपांतरित करना पड़ता है.
Bu hikaye India Today Hindi dergisinin April 26, 2023 sayısından alınmıştır.
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