जोधपुर में कालीबेरी स्थित पाक विस्थापित कॉलोनी में रहने वाले अमराराम की आंखों में कई साल बाद उम्मीद की चमक लौटी है. 2011 में अपने 11 सदस्यीय परिवार उनके के साथ पाकिस्तान से तीर्थ यात्रा वीजा पर भारत आए परिवार को अब तक यही चिंता खाए जा रही थी कि उन्हें कभी भी पाकिस्तान वापस लौटना पड़ सकता है. पिछले 13 साल से अमराराम और उनके परिवार का कोई मुल्क नहीं था, उन्हें हर जगह पाकिस्तानी शरणार्थी कहा जाता था. नागरिकता (संशोधन) अधिनियम (सीएए) लागू होने के बाद अमराराम और उसके परिवार का भरोसा जगा है कि अब उन्हें अपना मुल्क नसीब हो सकेगा. वे कहते हैं, "हमारा परिवार पिछले 50 साल से पाकिस्तान में रह रहा था, लेकिन वहां के लोग हमें काफिर ही कहते रहे हैं. अपनी 50 साल की मेहनत की कमाई गंवाकर हम इस उम्मीद में यहां लौटे कि एक दिन हमें हमारा पुराना मुल्क जरूर अपनाएगा."
इसी बस्ती में रहने वाले 60 साल के खेमाराम को भी अब नागरिकता मिलने की उम्मीद है. 15 साल पहले वे अपने परिवार के साथ भारत आए थे. उनकी बेटी सीता कुमारी बीए परीक्षा पास कर चुकी हैं, लेकिन भारत की नागरिक नहीं होने के कारण प्रतियोगी परीक्षाओं में भाग नहीं ले सकतीं. वे कालीबेरी स्थित शरणार्थी परिवारों के बच्चों के लिए चल रहे स्कूल में स्वेच्छा से रोज बच्चों को पढ़ाने पहुंच जाती हैं. सीता बीए पास करने वाली इस बस्ती की पहली छात्रा हैं. उनका सपना है कि वे शिक्षक बनकर पाकिस्तान से आए इन बच्चों को पढ़ाएं.
सीएए लागू होने के बाद अमराराम और खेमाराम की उम्मीदें तो आसमान पर हैं, लेकिन पाक विस्थापित कॉलोनी में रहने वालीं सुनारी और दारम की आंखों का दर्द साफ देखा जा सकता है. सुनारी 2019 में अपने परिवार के साथ पाकिस्तान से तीर्थ यात्रा वीजा पर भारत आई थीं. सीएए में 2014 से पहले भारत आए शरणार्थियों को ही नागरिकता दिए जाने का प्रावधान है. ऐसे में सुनारी और उनके परिवार को नागरिकता के लिए अभी इंतजार करना होगा. सुनारी कहती हैं, "काश, हम भी कुछ साल पहले भारत आ गए होते तो आज यहां के बाशिंदे होते." सुनारी के पिता बख्ताराम, मां कोइली, भाई बलियाजी, लालाजी और भोलाराम भी अपने 15 सदस्यीय परिवार के साथ भारत आना चाहते हैं, लेकिन वीजा न मिलने की वजह से अभी पाकिस्तान में ही हैं. बीते पांच साल में वे सात बार वीजा के लिए आवेदन कर चुके हैं.
Bu hikaye India Today Hindi dergisinin April 10, 2024 sayısından alınmıştır.
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